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________________ अन्य उत्तरदायित्वों के होते हुए गृहस्थ पूर्ण रीति से चक्र ण यः शत्रुभयंकरेण जित्या नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । अहिंसा का पालन नहीं कर सकता है। उसके लिए यह समाधिचक्रण पुजिगाय महोदयो दुर्जप मोहचक्रम् । उचित है कि अपनी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए अधिक-से-अधिक करुणाशील बनने का प्रयत्न करे। जैन ग्रंथों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कम-से-कम इरादतन-संकल्पी हिंसा (Intentional) tentional कि कम कि कम-से-कम भी अहिंसा का पालन करनेवाला का परित्याग अवश्य करे । मांसभक्षण, शिकार अपनी कमजोरियों पर विजय पाता हुआ श्रेष्ठ अहिंसक खेलना आदि क्र रकम संकल्पी हिंसा के अंतर्गत होने श्रमण की अवस्था को प्राप्त करता है, तथा अन्त में से त्याज्य हैं। जैन क्षत्रिय स्वयं मांसादि का त्याग परम निर्वाण को प्राप्त कर जन्म, जरा, मरण के चक्कर करता हुआ लोक संरक्षण, न्याय-परित्राण, तथा सत्पुरुषों से सदा के लिए विमुक्त हो जाता है। के रक्षणार्थ अस्त्र शस्त्रादि का भी प्रयोग करता है, क्योंकि उस प्रक्रिया के द्वारा व्यापक अन्याय, अत्याचार आकांक्षाओं पर नियंत्रण आदि का दमन होने से प्रकारान्तर से करुणा, शील, अहिंसा की साधना के लिए गृहस्थ को धन-वैभव सदाचार आदि अहिंसात्मक प्रवृत्तियों का संरक्षण एवं आदि की लालसा को कम करना चाहिए; आत्मा चेतना संवर्धन होता है । महर्षि जिन सेन ने महापुराण में कहा ज्योति स्वरूप है; धनादि परिग्रह आत्मा से भिन्न हैं, है, "प्रजाः दण्डधराभावे मात्स्यं न्यायं श्रमन्त्मम्" जो उसकी मृत्यु के समय यहाँ ही पड़े रहते हैं। अतः (16-252) यदि शासक दण्ड धारण करने में प्रमाद विवेकी गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह अपने पास की दिखावे, तो जगत् में हाहाकार मच जायगा । मात्स्य अधिक संपत्ति को सत्कार्यों में व्यय करे। संग्रहशील न्याय-जिसमें बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती व्यक्ति की शहद की मक्खी के समान दुर्दशा होती है-प्रवृत्त हो जायगा । अत्याचारी सशक्त व्यक्तियों का बोलबाला हो जायगा। अपभ्र श भाषा के महाकवि पुण्यदन्त ने कहा है, "रण चंगउ दीण परिरक्खणेण, मक्खी बैठी शहद पर पंख लिए लिपटाय । पोरुसु सरणागम रक्खणेण"-दीनों के रक्षणार्थ युद्ध हाथ मलै अरु सिर धून लालच बुरी बलाय। करना अच्छा है, शरणागत का रक्षण यथार्थ पौरुष है। गृहस्थ क्षत्रिय नरेश जैन धर्मानुसार अपना व्यक्तिगत मनुष्य स्वामाविक आकांक्षाओं को पूरा किया जा जीवन करुणापूर्ण रखते हुए अपने उत्तरदायित्व को सकता है, धनादि की लालसा कृत्रिम अभिलाषा को ध्यान में रख शस्त्रादि का संचालन करते थे। तीर्थकर नहीं पूरा किया जा सकता है। सिकन्दर से भारतीय शान्तिनाथ भगवान ने चक्रवर्ती नरेन्द्र की अवस्था में संत दंदमिस (Dandamis) ने कहा था, "स्वाभाविक चक्र के द्वारा नरेन्द्र समुदाय को जीता था, पश्चात् इच्छाएं जैसे प्यास को पानी द्वारा दूर किया जा सकता राज्य त्याग कर श्रमण वृत्ति अंगीकार करने पर उन्होंने है, भूख को भोजन द्वारा पूर्ति हो सकती है, किन्तु समाधि आत्म ध्यान के द्वारा मोह की सेना को परास्त धनादि की लालसा अस्वाभाविक होने से वह बढ़ती ही किया था। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है : जाती है और कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती है।" o to Dandamis told Alexander that natural desires are quenched easily, thirst by water hunger by food but the craving for possessions is an artificial one. It goes on unceasingly and never is fully satisfied (Speech by Dr. S. Radhakrishnan in inaugurating XXVI International Congress of Orientalists, New Delhi 1964) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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