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________________ १५४ अनादिरादिमांश्च ॥ ४२॥ रुपिष्वादिमान् ॥ ४३ ॥ योगोपयोगों जीवेषु ॥ १४ ॥ षष्ठोऽध्यायः कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥ १ ॥ स आववः ॥ २॥ शुभ. पुण्यस्य ॥३॥ अंशुमः पापस्य ॥ ४॥ सकषायाकपाययो. साम्पगयिकर्यापथयाः ।। ५ ।। अत्रतकपायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ६ ॥ १ अन्त के तीन सूत्र स० रा. ग्लो० में नहीं । भाष्य में मत का खण्डन राजवार्तिकार ने किया है । विस्तार के लिये देखा गुजराती विवेचन पृ० २४८ । २ देखो गुजराती विवेचन पृ० २५१ टि० । ३ यह सूत्रल्प से हाल में नहीं । लेकिन 'शेपं पापम्' ऐसा सूत्र है । सि० में 'अशुभः पापस्य' मूत्र रूप से छपा है लेकिन टीका से मालूम होता है कि यह भाष्यवाक्य है । सिद्धसेन का भी 'गपं पापन् ' ही सूत्र रूप से अभिमत मालूम होता है। ४ इन्द्रियकपायावतक्रियाः -हा. सि० । स० रा० लो० । भाष्यमान्य पाठ में 'अवन' ही पहला है। सिद्धसेन सूत्र की
SR No.011620
Book TitleTattvarthadhigam Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1940
Total Pages588
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size14 MB
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