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________________ १४७ स्थितिप्रभावसुखयुतिलेश्याविशुद्धोन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२१॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो होना ॥ २२ ॥ पीतपयशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ।। २३ ।। प्राग अवेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २४ ॥ ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ॥ २५ ॥ सारस्वतादित्यवहयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतो ऽरिठाश्च ।। २६ ॥ विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २७ ॥ 'औषपातिकमनुष्येभ्यः शेषास्तियायोनयः ॥ २८॥ स्थितिः ॥ २९ ॥ भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् ॥ ३० ॥ १ पीतमिश्रपद्ममिश्रशुक्ललेश्या द्विद्विचतुश्चातुः शेषेष्विति रा-पा० । २ -लया लौका -स. रा० श्लो० । सि-पा० । ३-प्याबाधारिष्टाश्च -स. रा. लो० । देखो गुजराती विवेचन पृ० १८३ टि० १। ४ -पादिक -स. रा. ग्लो। ५ इस सूत्र से ३२ वें सूत्र तक के लिए-'स्थितिसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमा हीनमिता'- ऐसा स० रा० लो० में एक ही सूत्र है । श्वे. दि. दोनो परंपराओं में भवनपति की उत्कृष्ट स्थिति के विषय में मतभेद है ।
SR No.011620
Book TitleTattvarthadhigam Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1940
Total Pages588
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size14 MB
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