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________________ १४५ चतुर्थोऽध्यायः देवाश्चतुर्निकायाः ॥ १ ॥ तृतीयः पीतलेश्यः ॥ २ ॥ दशाष्टपश्ञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३ ॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशपारिषैद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्ण काभियोग्यकिञ्चिषिकाश्चैकश ॥ ४ ॥ त्रायत्रिशैलोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः ॥ ५ ॥ पूर्वयोर्द्वन्द्रा ॥ ६ ॥ पीतान्तलेश्याः ॥ ७ ॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ८ ॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमन: प्रवीचारा द्वैयोर्द्वयोः ॥ ९ ॥ परेऽप्रवीचाराः ॥ १० ॥ १ देवाश्चतुर्णिकायाः स० रा० को० । २ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः स० रा० हो० । देखो, गुजराती विवेचन पृ० १६२ टि० १ । ३ - पारिषदा स० रा० श्लो० । ४ - शलोक -स० । ५ - वर्जी - सि० ६ यह सूत्र स० रा० छो० में नही । C ७ ' द्वयोर्द्वयोः ' स० रा० श्लो० में नहीं है । इन पदों को सूत्र में रखना चाहिए ऐसी किसी की शंका का समाधान करते हुए अकलङ्क कहते हैं कि ऐसा करने से आर्ष विरोध आता है । तं. १०
SR No.011620
Book TitleTattvarthadhigam Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1940
Total Pages588
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size14 MB
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