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________________ चतुर्थप्रकाश. ३१ हवे कायोत्सर्गनुं स्वरूप कहे . प्रालंबितनुजबंध, मूर्छस्थस्यासितस्य वा ॥ स्थानं कायानपदं यत्, कायोत्सर्गः स कीर्तितः ॥१३३॥ अर्थः- बन्ने हाथो लांबा करीने, उन्ना रहीने, अथवा बेगं बेगं कायानी अपेक्षाविना जे रहे, तेने कायोत्सर्ग कहेलो . (जिनकल्पिङ) फक्त उन्ना उन्नाज कायोत्सर्ग करे, अने स्थविर कपिउँ तो उन्ना उन्ना बेग बेग श्रने उपलक्षणथी सुतासुता पण कायोत्सर्ग करे. एवी रीतें आम्रकुनासन, क्रौंचासन, हंसासन, अश्वासन, गजासन विगेरे घणी जातनां आसनो बे; माटे, जायते येन येनेह, विहितेन स्थिरं मनः ॥ तत्तदेव विधातव्य, मासनं ध्यानसाधनं ॥१३॥ अर्थ:- जे जे श्रासन करवाथी मन स्थिर थाय, ते ते ध्यानने साधनारं आसन करवं. सुखासनसमासीनः, सुश्लिष्टाधरपक्षवः॥ नासाग्रन्यस्तबग्घी, दतै दैतानसंस्टशन ॥१३५॥ प्रसन्नवदनःपूर्वा, निमुखोवाप्युदङ्मुखः ॥ - अप्रमत्तः सुसंस्थानो, ध्याता ध्यानोद्यतो नवेत्॥१३६॥ अर्थः- सुखें करी थासन वालीने बेठेलो, तथा सारी रीतें जोडी दीधेल बे, बन्ने होठ जेणे एवो, तथा नासिकाना अग्रजागपर राखेल डे, बन्ने अांखो जेणे एवो, तथा उपला दांतोश्री नीचला दांतोने, अने नीचला दांतोयी उपला दांतोने नहीं स्पर्श करतो एवो, तथा प्रसन्न मुखवालो, अने पूर्व दिशा, अथवा उत्तरदिशा तरफ, अने उपलक्षणथी जिन, अथवा जिनप्रतिमा सन्मुख उन्नेलो, तथा प्रमाद रहित अने शरीरना उत्तमसन्निवेशवालो,एवोध्यान धरनार योगीध्यानमा उद्यमवंत थश्शके. एवी रीतें परमाईतश्रीकुमारपाल नूपालथी सेवायेला श्री आचार्य महाराजश्री हेमचंदजीये बनावेला अध्यात्मोपनिषद् नामना, तथा थयेख 'डे, पट्टबंध जेमनो, एवा आ योगशास्त्रमा पोते करेलु चोथा प्रकाशन विवरण समाप्त थयु. श्रीरस्तु.
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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