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________________ चतुर्थप्रकाश. हवे अन्यत्व जावनानुं खरूप कड़े बे. यत्रान्यत्वं शरीरस्य, वैसादृश्याच्चरीरिणः॥ धनबंधुसदायानां तत्रान्यत्त्वं न दुर्वचं ॥ ७० ॥ ३६३ अर्थ :- जीवनी साथे असादृश्यपणाथी जेम शरीरनुं जुदा पएं बे, तेम धन यादिक नव प्रकारथी बंधुरूप थपलां जे मातपितादिक, तेजनी साधे पण या जीवने जुदापपुंज बे. तथा. यो देदधनबंधुज्यो, निन्नमात्मानमीक्षते ॥ क्व शोकशंकुना तस्य, दंतातंकः प्रतन्यते ॥ ७२ ॥ अर्थः- जे प्राणी देड़ ने धनादिक नव प्रकारथी थयेला बंधुश्री पोताना श्रात्माने जिन्न लेखे बे, तेने शोकरूपी शल्य शीरीतें पीst श्रापी शके ? वे शुचित्वावनानुं स्वरूप कहे बे. रसासृग्मांसमेदोऽस्थि, मशुक्रांत्रवर्चसां ॥ पशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ॥ ७२ ॥ अर्थः- रस, रुधिर, मांस, चरबी, हाडकां, मजा, वीर्य, आंतरडां, तथा विष्टा विगेरे अशुचि पदार्थोनुं स्थानरूप काया बे, माटे तेमां पवित्रपणुं तो बेज क्यां! माटे, नवस्रोतः स्रवत्रि, रसनिःस्पंद पिचिले ॥ देदेऽपि शौचसंकल्पो, महन्मोद विजृंनितं ॥ ७३ ॥ अर्थः- शरीरमां रहेलां नव द्वारोमांथी करता दुर्गंधयुक्त रसनां ऊवाथी लिप्त थएला एवा आ शरीरमां पण जे शौचपणानो संकल्प करवो, ते महामोहनुं विजृंजित बे; अर्थात् तेम मानवुं ते मूर्खाइ नरेलुं बे. Tea काया गर्नमा पण वीर्य ने रुधिरना मेलापथी उत्पन्न य मली वृद्धि पामे बे, तथा अंदर अशुचि पडदाथी ढंकाइ रहे बे, तेमां शुचिप तो शी रीतेंज कही शकाय ? माताए जमेलां अन्नपानना रसश्री जे वृद्धि पामे बे, एवी या कायामां शीरीतें शौचपएं मानी शकाय ? वली जेमां उत्तम उत्तम लाडु आदिक पदार्थों पड्याची पण विष्टामय
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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