SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२३ योगशास्त्र. एवी रीतें संजव पणाथी अपौरुषेय वचननो अनाव कहीने, श्रसवझें रचेला धर्मर्नु अप्रामाणिकपणुं कहे . मिथ्यादृष्टिनिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः॥ स धर्म इति वित्तोपि, भवभ्रमणकारणं ॥ १३ ॥ अर्थः- मिथ्यादृष्टि एटले हरि, हर, ब्रह्मा, कपिल, बुद्ध, श्रादिकें प्ररूपेलो धर्म, जो के मुग्धबुद्धिर्ज प्रति प्रसिद्ध , तो पण, ते हिंसादिकथी कदुषित होवाथी नवमां जमाववानो हेतुजूत , कारण के, तेउना बनावेला आगमो हिंसादिकथी दूषित थयेला . हवे, कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्मनो श्राक्षेप सहित प्रतिक्षेप करे . सरागोऽपिदि देवश्चेत्, गुरुरब्रह्मचार्यपि॥ कृपाहीनोपि धर्मः स्यात् , कष्टं नष्टं दहा जगत् ॥१४॥ अर्थः-जो देव, राग, द्वेष अने मोहसहित होय, गुरु, श्रब्रह्म सेवनार, तथा उपलदणथी मूलोत्तरगुणरहित होय, तो अरेरे !!! तेवा देव, गुरु अने धर्मे जगत्ने दुर्गति आपवाथी तेनो नाशज कयों ने. (एम समजवू) हवे एवी रीतें, कुदेव, कुगुरु, तथा कुधर्मने बोडवाथी सुदेव, सुगुरु, अने सुधर्मने अंगीकार ते करवारूप जे सम्यक्त्व ते, आत्मपरिणामरूप बे, ते श्रापणा बनस्थ श्रादिकने प्रत्यद नथी. पण केवल लिंगधीज जणाय , हवे ते लिंगो देखाडे . . शमसंवेगनिर्वेदा, नुकंपास्तिक्यलदाणैः॥ लदाणैः पंचनिः सम्यक, सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥१५॥ अर्थः- समता, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, अने श्रास्ता, ए पांच लक्षाणोवाj समकित सारी रीतें लिखी शकाय, टीका:- शम, एटले समता अनंतानुबंधि कषायना अनुदयथी खानाविक रीतें थाय बे, अथवा कषायनां परिणामरूप कडवां फलोने जोवाथी थाय डे, वली केटलाको क्रोधनी खरजनो, तथा विषयनी तृष्णानो. जे उपशम तेने पण समता कहे . कारण के, समकिती अने साधुनी उपासना करनार माणसो, क्रोधनी खरजथी तथा विषयनी तृष्णाथी शी रीतें चपल थश् शके. हवे अहीं शंका करे के, जो क्रोधनी खरज
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy