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________________ ए योगशास्त्र. . हवे वचनगुप्तिनुं स्वरूप कहे . संझादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलंबनं॥ वाग्टत्तेः संशतिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिदोच्यते॥४२॥ अर्थः- संज्ञा आदिकने पण तजीने जे मौन धारण करवं, अथवा वाचावृत्तिनो निरोध करवो, ते “वाग्गुप्ति" कहेवाय . टीकाः संज्ञा एटले, मोहोडु, आंख, चुकुटी श्रादिकना विकारथी, तथा आंगलीना आबोटन आदिकथी, कार्य साधवावाली चेष्टार्ज, तथा आदि शव्दथी, ढेफु फेक, खांसी करवी, टुकारो जणवो, इत्यादिकनुं पण ग्रहण करवू; इत्यादि संझाउँने बोडीने जे मौन रहे, ते वचनगुप्ति कहे'वाय, कारण के, संझादिकथी जो प्रयोजनने सूचवे, तो तेनु मौन निष्फल बे; ते पेहेली "वचनगुप्ति" जाणवी. तथा वांचवा पूबवामां व्याकरणना नियमोना विरोधरहित, मुख आगल वस्त्र राखीने जे बोल, तेने बीजी "वचनगुप्ति" जाणवी. उपला बन्ने प्रकारोथी वचनगुप्तिनुं सर्वथा निरोधपणुं, तथा शुद्ध बोलवा रूप खरूप अंगीकार कर्यु अने तेथी नापासमिति, अने वाग्गुतिनो तफावत जणाश् श्रावे , कारण के नाषासमिति तो फक्त शुरु बोलवा रूपेंज . . हवे कायगुप्तिनुं स्वरूप कहे. ते कायगुप्तिना बे नेदो जे. एक चेष्टा विनानी, तथा बीजी नियमित चेष्टावाली. तेमांधी पेहेलीनू खरूप कहे. उपसर्गप्रसंगेपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः॥ स्थिरीनावः शरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते॥४३॥ उपसर्ग एटले, देव, माणस अथवा तिर्यंचथी थता उपनवो, तथा उपलदणथी दुधा तृषादिक परिसहो वखतें पण, कायोत्सर्गमा रहेला मुनिने जे शरीरनु निश्चल रहे, ते पेहेली काययुप्ति जाणवी हवे बीजीनुं स्वरूप केहे . शयनासननिदेपा दानचंक्रमणेषु च ॥ स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥४४॥
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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