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________________ ६८० आचारागसत्रे स्वात्मनः सुखरूपेण दुःखरूपेण वा परिणम्यते । एवं तयोः कार्यकारणभावं यो विजानाति, स एव स्वात्मगतसुखदुःखविज्ञातेति भावः। परकीयसुखदुःखविज्ञाता स्वात्मनः सुखं दुःखं वा जानातीत्युक्तार्थे हेतुं प्रदर्शयन्नाह- 'एयं तुल्लमन्ने सि ' इति । एतत्-सुखं दुःखं वा, तुल्यं सदृशमेव, अन्येषाम्=परेषां जीवानां स्वस्व चेत्यर्थः।। " कटेण कंटणए च, पाए विद्वस्स वेयणट्टम्स । जा होइ अणिव्याणी, णायव्या सव्वजीवाणं ॥ जह सम ण पियं दुक्वं, जाणिय एमेव जीवाणं "॥ छाया-- काष्ठेन कण्टकेन वा पादे विद्धस्य वेदनात्तस्य । या भवति अनिर्वाणि-तिच्या सर्वजीवानाम् । यथा मम न प्रियं दुःखं ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् ।” इति । ही अपने सुख-दुःख के रूप में परिणत हो जाता है । इस प्रकार जो उनके कार्यकारण भाव को जानता है वही अपने आत्मा के सुख-दुःख का ज्ञाता होता है । दूसरों के सुख-दुःख का ज्ञाता ही अपने सुख-दुःख को जानता है, इस क्थन में हेतु दिखलाते हुए कहते हैं:-'यह सुख और दुःख दूसरों के और अपने समान ही है। कहा भी है: लकडी से या कंटक से पैर में विध जाने की वेदना से पीडित पुरुष को जो असतोष होता है, वही सब जीवों को होता है । जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार अन्य अन्य प्राणियों को भी दुःख प्रिय આ પ્રમાણે બીજાના સુખ અને દુઃખજ પિતાના સુખ-દુખના રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે જે તેના કાર્યકારણ ભાવને જાણે છે, તે જ પોતાના આત્માનાં સુખ-દુઃખના જ્ઞાતા હોય છે બીજાના સુખ-દુઃખનાં જ્ઞાતા જ પિતાના સુખ–દુઃખને જાણે છે. આ કથનમાં હેતુ બતાવતા થકા કહે છે કે – " २॥ सुप. मन हुम भीतन मने मापgi समान छ.” ४थु छ : “લાકડીથી અથવા કાંટાથી પગમાં વિધાઈ જવાની વેદનાથી પીડિત પુરુષને २ मत ना थाय छ, तवा सर्व वान. (वहना) थाय छे." “भ भने दुः५ प्रिय नथी, ते प्रमाणे मी माने ५ म प्रिय नथी."
SR No.011616
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1958
Total Pages801
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
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