SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ आचाराङ्गमत्र (द्रतविलम्बित छन्दः) "निपुणशिष्यगणैर्विनयान्वितै, विमलभावयुतैः परिसेवितैः । गणधररखिलैः प्रथमं वचः, खलु 'सुयं म' इति प्रतिभापितम्" ॥१॥ इति । भगवता यदाख्यातं तदाह-'इहमेगेसिं' इत्यादि । मूलम् इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ, तंजहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिशाओ आगओ अहमंसि, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उडाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि । अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि ।। म. २॥ “विनय से युक्त निपुण शिष्यों द्वारा सेवित, तथा निर्मल भावों वाले सव गगघरों द्वारा अपने२ शिष्यों के प्रति सर्व प्रथम मुयं मे यह वाक्य कहा गया है ॥१॥ भगवानन्ने जो कहा वह कहते है-'इहमेगेसिं' इत्यादि । मूलार्थ-~-किन्हीं २ (जीवा) को संज्ञा नहीं होती कि मै पूर्व दिशा से आया हूँ. या मैं दक्षिण दिशा से आया हूँ, या मैं पश्चिम दिशा से आया हू, अथवा मै उत्तर दिशा से आया हूँ। अथवा मैं उर्व दिशा से आया हूँ, या अघोदिशासे मै आया हूँ. अथवा मै दूसरी किसी दिशा या अनुदिशा (विदिशा) से आया हूँ। ॥२॥ વિનયથી યુક્ત નિપુણ શિષ્યએ સેવિત તથા નિર્મલ ભાવવાળા સર્વ गएराध। द्वारा पातपाताना शिष्यो प्रति सर्व प्रथम 'सुयं में ये पाध्य वामां माव्यु छे" ॥१॥ भूमाथ-'इहमेगेसिं' इत्यादि. 5-35 ()ने सा नथी डाती हु પૂર્વ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું દક્ષિણ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું પશ્ચિમ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું ઉત્તર દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું ઉર્વ દિશામાથી આવ્યો છું, અથવા હું એ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું અન્ય બીજી કેઈ દિશામાંથી અથવા અનુદશા (વિદિશા)માંથી આવ્યો છું. પરા
SR No.011616
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1958
Total Pages801
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy