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________________ अध्ययन नवमुं. [१४५] णिक्खम्म एगदा राओ, चाएति भगवं समियाए. ॥१५॥ एस विही अणुकंतो माहणेण मईमया; बहुसो अप्पडिण्णेण, भगवया एवं रियंति-ति बेमि।१६। (४९७) [तृतीय उद्देशः] तणफासे सीयफासे, तेउफासे य दंसमसगेय; १ शक्नोति धूजता हता, ज्यारे अपर साधुओ तेवी थंडीमा निर्वात [ वायरा विनानी ] जग्या शोधता हता, तथा वस्त्रो पहेरवाने चहाता हता, ज्यारे तापसो लाकडा वाळीने शीतनुं निवारण करता हता, एम ज्यारे शीत सहन कर, घणुं दुःखबरेलुं हतुं, तेवे समये संयमी भगवान (वीर प्रभु) निरीह बनी खुल्ला स्थानमा रही शीतसहन करता रहेता. कदाच अत्यंत शीत पडतां ते सहन करवं विकट पडतुं त्यारे रात्रिए (मुहूर्त मात्र) वाहेर हरी फरीने साम्यपणे रहेता थका पाछा अंदर वेशी; ते शीत सहेता रहेता. [४९६] ए रीते मतिमान् निरीह भगवाने वारंवार एवी विधि पालन करी छे तेम वीजा मुनिओए पण वर्त्तव. [४९७] त्रीजो उद्देशः (वीर प्रभुए केवा परीषह सह्यां.). . . (महावीरदेव) सदा समितिवंत वनीने कर्कश स्पर्श, ताह, ताप, तथा दंश
SR No.011502
Book TitleAng 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavjibhai Devraj
PublisherRavjibhai Devraj
Publication Year1906
Total Pages435
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & Conduct
File Size17 MB
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