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________________ : था। उनका प्रबन्ध सन् 1923 मे हैम्बुर्गसे 'दिगम्बर-टेक्स्टे ईने दर्शतेलु ग इहरेर प्राख उन्ड इहरेस इन्हाल्ट्स" के नामसे प्रकाशित हुआ था। विगत तीन दशकोमे जहां प्राकृत व्याकरणोके कई सस्करण प्रकाशित हए, वही रिचर्ड पिशेल सिल्वालेवी और डॉ. कीथके अन्तनिरीक्षणके परिणामस्वरूप सस्कृत नाटकोमे प्राकृतका महत्त्वपूर्ण योग प्रस्थापित हरा। पार०श्मितने शौरसेनी प्राकृनके सम्बन्धमे उसके नियमोका (एलीमेन्टरबुख देर शौरसेनी, हनोवर, 1924), जार्ज ग्रियर्सनने पैशाची प्राकृतका, डॉ जेकोबी तथा प्रॉल्सडोर्फने महाराष्ट्री तथा जैन महाराष्ट्रीका और डब्ल्यू० ई० कर्कने मागधी और अर्द्धमागधीका एव ए. बनर्जी और शास्त्रीने मागधीका (द एवोल्युशन प्रॉव मागधी, आक्सफोर्ड, 1922) विशेप अध्ययन प्रस्तुत किया था। भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिसे नित्ति डोल्चीका विद्वत्तापूर्ण कार्य. 'लेस अमेरियन्स प्राकृत्स' (पेरिस, 1938) प्राय सभी भाषिक अगो पर प्रकाश डालनेवाला है। नित्ति डोल्चीने पुरुषोत्तमके 'प्राकृतानुशासन' (पेरिस, 1938) तथा रामशर्मन् तर्कवागीशके 'प्राकृतकल्पतरु' (पेरिस, 1939) का सुन्दर सस्करण तैयार कर फासीसी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया। व्याकरणकी दृष्टिसे सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य रिचर्ड पिशेलका 'मेटिक देअर प्राकृत-प्राखन' अद्भुत माना जाता है, जिसका प्रकाशन 1900 ई० मे स्ट्रासवर्गसे हुआ । ___ इस तरह से विदेशी विद्वान् जैन साहित्य की ओर आकृष्ट हुए और उन्होने जैन साहित्य के क्षेत्र मे अनुकरणीय कार्य किया। 243, शिक्षक कालोनी नीमच (मध्यप्रदेश) चरित्र के दो प्रकार हैं-कर्त्तव्य को स्वीकार करना और अकर्तव्य को त्यागना। वही चैतन्यज्ञान है और वही सम्यक्त्व है । उस अकर्तव्य के त्यागरूप चरित्र मे जो उद्योग और उपयोग होता है, उन उद्योग और उपयोग को ही छल कपट त्यागकर करने को जिनेन्द्रदेव ने तप कहा है। भगवती माराधना क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को प्रार्जव से और लोभ को सन्तोष से, इस प्रकार चारो ही कपायो को जीतो। उस वस्तु को छोड देना चाहिये जिसको लेकर कषायरूपी आग उत्पन्न होती है और उस वस्तु को अपनाना चाहिये जिसके अपनाने से कषायो का उपशम हो। यदि थोडी भी कपायरूपी प्राग उठती है तो उसे बुझा दें। जो कषाय को दूर करता है उसके राग-द्वेष की उत्पत्ति शान्त हो जाती है। जितने भी परिग्रह राग-द्वेप को उत्पन्न करते हैं, उन परिग्रहो को छोडनेवाला अपरिग्रही साधु राग और द्वेष को निश्चय से जीतता है। भगवती माराधना
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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