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________________ 4. किसी भी वस्तु की सत्ता अर्थक्रियाकारित्व से सिद्ध होती है। दूध दुहने का कार्य किसी विशेष गाय से सिद्ध होता है, गोत्व से नही। किसी विशेष घोडे को दौडाया जाता है, सामान्य घोडत्व को नही। 5 यदि सामान्य को एक न मानकर अनेक माना जाता है तब तो वह विशेष ही कहलाएगा। अतः विशेष की सत्ता है, सामान्य की नहीं। सामान्य-विशेष-निरपेक्षता 1 न्याय-वैशेषिक मानते हैं कि सामान्य और विशेप भिन्न हैं, क्योकि सामान्य और विशेष के स्वभाव भिन्न हैं। गोत्व व्यापक होता है किन्तु काली या उजली गाय व्यापक नहीं होती। 2 सामान्य से यदि विशेष को पृथक नही माना जाता है तो क्या सामान्य का ही ज्ञान होता है, विशेष का नही? क्या सामान्य से ही सब कुछ प्रभावित है? यदि विशेष का ज्ञान नही हो सकता तब तो विशेष का वाचक शब्द नहीं होना चाहिए और न विशेष के द्वारा कोई क्रिया ही होनी चाहिए। किन्तु व्यवहार मे विशेष के द्वारा किया गया कार्य देखा जाता है और विशेष का वाचक भी होता है। प्रत सामान्य से भिन्न विशेष की सत्ता माननी चाहिए। 3 इस तरह यदि विशेष से भिन्न कोई सामान्य नही होता तो उसका भी वाचक नही होता किन्तु सामान्य के भी "वाचक" पाए जाते हैं। अत सामान्य और विशेष दोनो हैं किन्तु दोनो भिन्न हैं, निरपेक्ष हैं। सामान्य-विशेष-सापेक्षता: यह मत जैन दर्शन का है । जैन दर्शन नयवाद का प्रतिष्ठापक है । प्रत "नय" की कसौटी पर अन्य मतावलम्बियो के विभिन्न विचारो को कसने के बाद यह कहता है कि जो लोग मात्र सामान्य को मानते हैं वे सग्रह नय की दृष्टि को अपनाते हैं । सग्रह नय की दृष्टि सामान्य को ग्रहण करती है। विशेष को मान्यता देने वालो की दृष्टि पर्यायार्थिक नय की है, क्योकि वे पर्यायो को प्रधानता देते हैं । जो सामान्य और विशेष दोनो को ही मानते हैं किन्तु दोनो को एक-दूसरे से भिन्न समझते हैं, उनकी दृष्टि नैगमनय की है, जिसमे कभी द्रव्य पर विचार होता है तो कभी पर्याय पर। ये दृष्टिया एकागी है । इनसे एकागी ज्ञान होते हैं। सही ज्ञान तो अनेकान्तवाद के माध्यम से होता है । अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु मे अनन्त धर्म होते हैं। उन अनन्त धर्मों मे से कुछ स्थायी होते हैं जिन्हे गुण कहा जाता है और कुछ अस्थायी यानी बदलने वाले होते हैं। जो स्थायी धर्म होते हैं उन्हे सामान्य माना जाता है और जो परिवर्तनशील धर्म है उन्हे ही विशेष की सज्ञा दी जाती है। 1 वस्तु को अर्थक्रियाकारित्व से जानते हैं। प्रत्यक्ष रूप से अनेकान्त मे यह देखा जाता है। जब कोई व्यक्ति गोत्व कहता है तब उसके सामने गोत्व के सभी सामान्य लक्षण आ जाते हैं । यह अनुवृत्ति है । और गाय कथन के साथ ही मैस, घोडा, गदहा से उसकी व्यावृत्ति का भी बोध होता है। अनुवृत्ति तथा व्यावृत्ति क्रमश सामान्य तथा विशेष सूचक है। प्रत किसी एक पदार्थ के सामने प्राते ही सामान्य तथा विशेष दोनो का बोध होता है। 26
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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