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________________ (ख) विशेष को सत् मानने वाले विशेष को तभी जान सकते हैं जब उसका स्वभाव 'विशेषत्व' उसमे हो। अपने स्वभाव को छोडकर कोई भी वस्तु नही रह सकती। यदि विशेषत्व के कारण विशेष है तब तो वह विशेषत्व ही सामान्य है। (ग) अनुवृत्ति को सामान्य तथा व्यावृत्ति को विशेष कहते हैं। व्यावृत्ति का मतलब है दूसरे से भिन्नता, दूसरे का निषेध । किन्तु कोई भी वस्तु अपने से भिन्न वस्तु का निषेध यदि कर सकती है तो उसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनो ही कालो मे तीनो लोको के समस्त पदार्थों का निषेध करना होगा, तभी उसकी निषेध-क्षमता की सिद्धि होगी अन्यथा नहीं । इसे प्रमाणित करने के लिए प्रमाता को सर्वज्ञ होना होगा । सर्वज्ञता के नीचे न तो यह अनुभव से सिद्ध हो सकता है और न तर्क से ही । प्रत व्यावृत्ति आकाश कुसुम की तरह अभाव रूप है। (घ) व्यावृत्ति सत् है अथवा असत् । यदि असत् है तब तो इसका कोई अर्थ नही हो सकता । खरविषाण और घट की व्यावृत्ति हो सकती है। यदि व्यावृत्ति सत् है तो क्या जितने भी विशेष हैं उन सब मे एक ही व्यावृत्ति है अथवा सव मे अलग-अलग व्यावृत्तिया है। यदि विशेषो मे अलग अलग व्यावृत्तिया है तो इसका मतलब है कि एक व्यावृत्ति मे दूसरी व्यावृत्ति है । इस तरह दूसरी मे तीसरी व्यावृत्ति भी हो सकती है। फिर तो अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा। यदि यह माना जाता है कि एक ही व्यावृत्ति सभी विशेषो मे देखी जाती है तव निश्चित ही वह व्यावृत्ति सामान्य कही जाएगी। विशेषवाद 1 विशेषवादी बौद्ध क्षणभगवाद के सिद्धान्त को मानते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण बदलती रहती है । यह विशेष का लक्षण है। परिवर्तन विशेषो मे ही देखा जाता है। विशेषो की ही सत्ता होती है । गाय को हम देखते हैं गोत्व को नही । "प्रत्यक्ष रूप से अलग-अलग देखी जानेवाली पाच अगुलियो मे जो सामान्य अगुली को देखता है वह मानो अपने सिर सीग देखता है।" यह व्यग बताता है कि सामान्य की सिद्धि नही हो सकती, जैसे कोई व्यक्ति अपने सिर पर सीग की बात को न सोच सकता है और न उसे देख ही सकता है। 2 सामान्य की उत्पत्ति व्यक्तियो से होती है। अत अपने कारण से भिन्न सामान्य की कल्पना ठीक नही है। 3 सामान्य एक है या अनेक । यदि एक है तो वह व्यापक है अथवा अव्यापक ? (क) यदि सामान्य व्यापक है तो उसे दो वस्तु के बीच मे भी रहना चाहिए। किन्तु वह दो मे होता है दोनो के बीच मे नही होता। (ख) यदि वह सब मे पाया जाता है, सर्वगत है, एक है, तब तो उसे घट-पट सब मे व्याप्त रहना चाहिए। । (ग) यदि वह अव्यापक है तब उसे विशेष मानेंगे, सामान्य नही। .. 25
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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