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________________ १६ जैनधर्मपर व्याख्यान. किंवा लाखोंमें एक ही दो पाये जाते हैं. इन्दौरकी तरफ यती लोगों के घर, द्वार, खेती बाड़ी, व्यापार व्यवहार वगैरे सब कुछ है, अपने लोगों में व्याज बट्टालेनेवाले, चोरी करनेवाले, अज्ञ विधवाओंको कुमार्ग में फंसानेवाले, व प्रसंग पड़नेपर नर्मदूतके भी काम करने! वाले सन्यासी जैसे पाये जाते हैं वैसे ही जैनी लोगोंके यति भी सैकड़ों वक्त सर्वथा भ्रष्ट - चरणोंके और यति इस नामके विपरीत वर्ता - व करनेवाले पाये जाते हैं । परंतु शास्त्रों में जो यतिधर्म कहा गया है वह अत्यन्त उत्कृष्ट है, इसमें कुछ भी शंका नहीं. इस शास्त्रोक्त धर्मके अनुसार चलनेवाले हजारों | कृत्योंमें जन्म व्यतीत करनेकी आज्ञा है. यह सर्वोत्कृष्ट है इसमें कुछ भी संशय नहीं है; और हिन्दू समाजको इस विषयमें जैनियोंका अनुकरण अवश्य करना चाहिये. ख्रिस्तीय मिशनकी स्त्रियां थोड़े बहुत अंशमें स्त्री शिक्षाका प्रचार अवश्य करती हैं; परंतु उनका परदे - शीपन और विशेषतः उनका ख्रिस्तीयधर्म. इस प्रथाको लोकप्रिय करनेकं कार्यमें हमेशा वाधक है. इसकेलिये उपाय नहीं है. जैनी लोग आस्तिकवादी हैं कि, नास्तिकवाड़ी ? इस विषय में बहुतही मत मंद हैं, श्रीशंकराचार्य्यने उन्हें ना यतिधर्म ग्रहण करनेवाळी स्त्रियोंका उपयोग, जैनी आस्तिक हैं कि नास्तिक ? । यतिधर्म ग्रहण करनेवाली स्त्रियोंको भी ये ही स्तिक कहा है, पाश्चिमात्य ग्रन्थकार भी उन्हें नियम पालने चाहिये, नास्तिक समझते हैं. परन्तु जैनियोंको नास्तिक शास्त्रोंमें एक बहुत कहने में थोड़ीसी भ्रान्ति होती है. ऐसा मुझे महत्वका और लो जान पड़ता हैं. जैनी लोग आत्मा, कर्म और कोपयोगी कार्य उनके लिये दिया गया है सृष्टिको नित्य मानते हैं, इनका न कोई उत्पन्न अर्थात् उन्हें श्रावक के घर २ जाकर स्त्रियोंमें करनेवाला है और न नाश करनेवाला है ऐसी धर्मशिक्षणका प्रसार करना चाहिये. ऐसी शा- उन लोगोंकी समझ है. हम जो कर्म करते हैं स्त्रोंकी आज्ञा है. अर्थात् ख्रिस्तीय मिशनम | उसका फल हमको मिलता है. ईश्वरका उससे रीखी ही यह संस्था है, परंतु ख्रिस्तीय संस्थाकी | अर्थतः भी कुछ सम्बन्ध नहीं है. हम स्तुति करके परमेश्वरको प्रसन्न कर लेवें व ईश्वर हमारी स्तुतिमें भूलकर हमारे कर्मानुसार भलाबुरा फल दिये बिना रह जावेगा, यह कल्पना भी जैनियोंमें नहीं है. ईश्वर सर्वज्ञ, नित्य और मङ्गलस्वरूप है. यह जैनियोंकी मान्य है; परन्तु वह हमारी पूजा व स्तुतिसे प्रसन्न होकर हमपर विशेष कृपा करेगा व न्यायको कांटेको अणुमात्र भी इधर उधर करैगा ऐसा नहीं है. कर्मानुसार अपेक्षा यह अपने लोगोंके बहुत उपयोगकी है, स्त्री शिक्षणका प्रसार स्त्रियोंके ही हाथसे होना चाहिये, परंतु अपने समाज में प्रत्येक स्त्रीका किसी नियमित वयके पूर्व विवाह करना आवश्यक होनेके कारण स्त्री शिक्षण सरीखे देशोपकारक कार्यको स्त्रियोंकी औरसे कुछ भी सहायता नहीं मिलती. जैनियोंमें (श्वेताम्बर पंथ) स्त्रियाँको यति दीक्षा लेकर परोपकारी
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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