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________________ मुख्यतत्त्व. जैनधर्मपर व्याख्यान. उसने स्वकीय (अपना) बौद्ध धर्म स्थापित वह जीव, शरीरादिक मड़ पदार्थ जिसमें अन्तकिया. भूत होते हैं वह अजीव, "शुभाशुभकर्मद्वारजैनियोंके मुख्य ४५ शास्त्र हैं. उन्हें सि- रूप आत्रवः' अर्थात् शुभ अथवा अशुभ कर्म द्धान्त किंवा आगम कहते हैं. भद्र- बंध होनेके जो द्वार उन्हें आस्रव कहते हैं. जैन शास्त्र. बाहुस्वामि नामक एक विद्वान् जैन ' "आत्मकर्मणोअन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः' हो गये हैं उन्होंने यह ग्रन्थ लिखे अर्थात् आत्माके प्रदेश व कोंके प्रदेशोंका परहैं, ऐसा लोग कहते हैं. इन ४५ शास्त्रोंमें ; म्परमें प्रविष्ट होना सो कर्मबंध; " आस्रव नि११ अंग, १२ उपाङ्ग, १० प्रकीर्णक, ६ छेद, रोधलक्षणःसंवरः' अर्थात् आत्माके स्थानमें ४ मूलसूत्र, और २ अवान्तर सूत्र हैं. नवीन कर्म न आने देना अथवा आस्रवका नि जैनधर्मके मुख्य तत्त्व सात हैं, १ जीव, २ रोध करना इसे संवर कहते हैं;* और सम्पूर्ण .. अजीव, ३ आस्रव, ४ बंध, ५ कोका नाश होना यह मोक्ष है. जीवोंके गुणोंको जैनधर्मके संवर, ६ निर्जरा, और ७ मोक्ष. दांकनेवाले कर्मोके आठ भेद हैं और इन इनमें पाप और पुण्य दो मिलानेप्से आठ ही प्रकारके कर्मोके नाश करनेके मार्गको नव पदार्थ हो जाते हैं, जिसके चैतन्यगुण है मोक्षमार्ग कहते हैं. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, (1) ये सब ग्रंथ जैनोंका एक भेदविशेष जैना- व सम्यक्चारित्र यह उस मार्गके तीन द्वार हैं. भास जिनको आजकल स्वेताम्बरजैन कहते हैं, उनके अर्थात् इन तीन साधनोंके योगसे सम्पूर्ण कर्महै. सनातन जैनियोंके प्रन्थोंके नाम भी ग्यारह अंग बंधोंका नाश होकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है, चौदह पूर्व हैं. परन्तु वे इतने बड़े थे कि उनका का। गजमें लिखना असंभव था. वे भ्रतकवली नामक ! अतएव इन तीन साधनोंका समुच्चयसे रत्नत्रयी षियोंके हृदयस्थ ही रहते थे. उनका लोप उनही ऋ ऐसा नाम दिया है. पहिला षियोंकेसाथ हो गया. उनके पीछेके श्राचार्योंको कमसे रमत्रयी. साधन सम्यग्दर्शन, 'तत्त्वार्थ न्यून ज्ञान होता रहा. शेषमें जब एक २ अंगके पाठी श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् रह गये और भविष्यत्में और भी हीन ज्ञानी होवंगे तो पर्वमें कहे हए नीव अजीवादि सप्त तत्त्वांके सनातन पवित्र जैनशासनका दुनियांपरसे लोप हो जायगा. ऐसा समझकर सब आचार्योने मिलकर अपनी ! अर्थमें श्रद्धान रखना; दूसरा साधन सम्यग्ज्ञान स्मृतिके अनुसार उन ग्यारहअंग, चौदह पूर्वोका सार अर्थात् धर्मका संशय विपर्यय रहित यथार्थज्ञान; संग्रह करके ग्रंथ रचना करना प्रारंभ किया. उनका भी * लेखक महाशय यहां निर्जराका लक्षण लिखना अन्यायी राजावोंके राज्यमें तथा शंकराचायांदिके समयमें अनायास भूल गये है उसे हम लिख देते हैं. . प्रायः लोप हो गया. उनमेसे बचे बचाये ग्रंथ है. उन- देशकर्मक्षयलक्षणा निर्जरा" अर्थात् पूर्वसंचित कमांका मसे मुख्य २ धवल, जयधर्वल, महाधवल, गोमडसार : अंशतः ( एकदेश) नाश करना सो निर्जरा है. त्रिलोकसार, राजवार्तिक, लोकवार्तिकन्यायकम. (१) यहांपर 'धर्मका' ऐसा कहनेसे स्पष्ट नहिं चंद्रोदय, न्यायविनिश्चयालंकार, प्रमेयकमलमार्तड, अ होता. इसकी जगहें जीवादि सप्त तत्त्वों अथवा आ त्माके स्वरूपको अथवा सच्चे देवशास्त्र गुरुको परीक्षासहस्री आदि हजारों बडे २ ग्रंथ, संस्कृत व प्राकृत पर्वक संशय विपर्यय अनध्यवसायरहित यथार्थ भाषामें अब भी हैं. जानना यो सम्बग्ज्ञान है. ऐसा समझना चाहिये.
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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