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________________ ३६ स्वदेशी आन्दोलन और बायकार । अपने पवित्र कर्तव्य से - पराङ्मुख क्यों होना चाहिए ? हमारा तो यह दृढ़ विश्वास है कि जिस प्रकार अंगरेजों ने, अपनी अमलदारी के प्रारंभ में, इस देश के व्यापार और कारखानों को अनेक अनुचित और अन्यायी उपायों से नष्ट करने का प्रयत्न किया था, उस प्रकार के प्रयत्न करने का साहस, वे लोग, इस समय, बीसवीं सदी में, कदापि न करेंगे । क्योंकि इस समय दुनिया के सब देशों के विचारों में जो एक विशेष-भाव देख पड़ता है; और जिस विशेष-भाव का असर, एशिया-खंड के कई देशों पर होता हुआ, हिन्दुस्थान पर भी पड़ने लगा है; वह अंगरेजों के उक्त अनुचित और अन्यायी उपायों को कदापि सफल होने न देगा । इस वर्तमान समय के विचार-सागर का प्रवाह हमारे अनुकूल है। केवल हमारे हृढ़ निश्चय की आवश्यकता है । इस विषय का उल्लेख गत परिच्छेद में किया गया है। अतएव हमारी यह राय है कि यह उद्योग-यह प्रयत्न-- हमारी शक्ति के बाहर नहीं है । यदि वर्तमान समय के विशेषविचार-विशेष-भाव-की अनुकूलता पाकर हम लोग दृढ़ निश्चय से अपनी प्रतिज्ञा के पालन का प्रयत्न करें तो निस्सन्देह हमारा इष्ट हेतु सफल होगा। इतना प्रयत्न करने पर भी यदि किमी अपरिहार्य कारण से सफलता प्राप्त न हो तो भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार " तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि" हम लोगों को शोक नहीं करना चाहिए । यदि हमारा उद्देश पवित्र है, हमारे विचार उचित हैं, हमारी प्रतिज्ञा योग्य है, हमारा निश्चय अटल है, हमारा प्रयत्न शुद्ध और सरल है और समय की अनुकूलता भी है तो हमारे मनोरथों की सफलता होनी ही चाहिए। यदि न हो तो उसके विषय में खेद मानकर लैव्य दशा का स्वीकार करना उचित नहीं। जिस समय हमको अपने कर्तव्य-कर्म में कटिबद्ध होना चाहिए उस समय क्लैब्य दशा का स्वीकार करके हृदय की दुर्बलता प्रकट करना उचित नहीं । यही जानकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है "-लैब्यं मास्मगमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।" सच है; जिन लोगों को अपने इष्ट कार्य की सफलता
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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