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________________ परिशिष्ट. हे सजन तुम्हारे यादवनके पति गुरुदेवता प्यारे कुलपति किंकर श्रीकृष्ण हैं ऐसे भक्ति हमारी होय हे अंग भजन करवेवारेनको भगवान मुकुन्द मुक्ति देव हैं भक्तियोग कदी भी नहीं देवे है ॥१८॥ नित्य अनुभव करो भयो जो निजलाभ तासे जाकी तृष्णा निवृत्त भई ऐसे ऋषभदेवजी मंगलको रचना करके बहुत कालसे जाकी बुद्धि शयन करे ऐसे लोकके जीवनके अपर करुणा करकै निर्भय आत्मा को स्वरूप कहिते भये तिन भगवान ऋषभदेवजी महाजनके अर्थ नमस्कार होय "या मतमें कोई मनुष्य तो श्रेष्ठ भये कोई जो मूर्स भये उन्होंने ऐसे आचरण करे यासे लोकमें प्रशंसा करते भये ॥ १९ ॥ सातवां अध्याय. श्रीशुकदेवजी बोले कि-भरतजी महाराज महाभागवतको जब भगवानने पृथिवीकी रक्षाके लिये चित. वन करे तब उनकी आशामें परायण होय विश्व रूपकी वेटी पंचजनीसे व्याह करते भये तामे संपूर्णता करके अपने समान पुत्र पांच उत्पन्न करते भए जैसे अहंकार पंचभूत सूक्ष्मन करचे तद्वत जानो ॥२॥ सुमति राष्ट्रभुत सुदर्शन आवरण धूम्रकेतु ये पांच पुत्रनके नाम है अजनाम इस भारत वर्षको अपना नाम विन्यातिके लिये भारत खंड रखा कहिते है॥३॥ सो राजा बहुत बातोंका जाननेवाला अपने परदादेके समान बहुत दयालु अपने २ कर्ममें वर्तमान प्रजाको अपने स्वधर्मसे वर्तमान करत सब ओरसे रक्षा करते भय ।। ४ ॥ यझरूप भगवानको भजन करते भये ऊंचे नीचे यज्ञ कर श्रद्धास मामिहोत्रदर्श अमावास्याको इटितरपण पूर्णमासीको इष्टि आदि बत कर चातुर्मास्य व्रत पशु सोमयाग चानुहांत्र विधि करके अनेक प्रकृतिनका विकृति करके यज्ञ करते भये ॥५॥ नानाप्रकारके याग विरचित अंगकिया जाम ऐसे याग सुन्दर प्रचार करते भव अपूर्व जो किया फल रूप धर्म सो परवा यज्ञ पुरुषमे सब देवनानके चिन्ह मंत्र अथ इनकी नियामकता करके साक्षात्परदेवता भगवान नामुंदवमे भावना करत अपना निपुणता करके सब कषाय जिनके दर भये अध्वर्यु लोगोने हवि. जव गृहण कीनी तब वो यजमान यज्ञ करता उन सब देवतानको परमेश्वरके अवयवों में मान भाग देतो भयो ध्यान करता भयो ॥६॥ से बिगुद् कर्म करके जब खूब तत्व विशेष कर शुद्ध भयो तब हृदयाकाश शरीररूप ब्रह्म भगवान वासुदेव महापुरुष रूपसे जिनको दर्शन होय श्रीवत्स कौस्तुभवनमाला शंख चक्र गदादिकों करके लखनै में आवै निज पुरुपनके हृदयमें लिखित आत्मापुरुषरूप करकै प्रकाशमान भगबानकी दिनरात जाको वेग बढे ऐसी महाभाक्ति होती भई॥॥ ऐसे दश हजार वर्ष पर्यंत कर्मके करनसे मोक्ष जाजीचको होय का समयको निश्चयकर आप भोग जो पित पितामहको हिस्सा ताहि अपनो सब पुत्रनको यथायोग्य विभागकर सकल संपदानको जामें वास ऐसे घरसे पुलस्त्य ऋषिके आश्रमको जाते भये हरिक्षेत्र में को आश्रम है॥८॥ जहां भगवान हार आजतक तहांके होनेवारे निज जननकी वात्सल्यता करके अपनी इच्छा रूप धार मुन्दरतासे रहे हैं ॥ ९॥ जा आश्रममें दोनों और ऊपरनीच जिनमें चक शिला मध्यमें जाने विद्याधर कुंडमै शालिग्राम होय ६चक्र नदी जाको नाम गंडकी जाको कह ऐसा सब नदीन में श्रेष्ठ नदी सव औरसे पवित्र करती भई॥(१)॥१७॥ लेख नं. ९. हम यहां छठे सूत्रपर विज्ञानभिक्षुके भाष्यको नकल करते हैं उभयोरेव दृष्टादृष्टयोरत्यन्तदुःखनिवृत्त्यसाधक्रत्वे यथोक्ततदेतत्पे चाविशेष एव मन्तव्य इत्यर्थः । एतदेव कारिकायामुक्तम् ।
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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