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________________ परिशिष्ट. __काम, कोष, मद लोभ, शोक, मोह भयादिक सब कर्मबंधको मूल मन कोन बुद्धिमान वश न करैगो ॥ ५ ॥ याके उपरांत सकल लोकपालनमं मंडन, जडवत, अवधुत वेष, भाषा आचरणोंकरके भगवत्प्रभा (भगवत्प्रभाव )वजाको लखाई न पड़े, योगियोको देह त्याग विधिको शिक्षा करत अपने शरीरको त्यागकी जिनको इच्छा आत्मामें आत्माको ध्यात ध्येयभाव त्याग अभेदबुद्धि करके देखते सब वृत्तियोसे उपारामको प्राप्त होते भये ॥६॥ ऐसे जिनके चिन्ह तिन भगवान ऋषभदेवजीको योगमायाकी वासना करके शरीरमें या पृथिवीको अभिमानके आभासमात्र करके पर्यटन करत कोंक वेंक कुटक दक्षिण कर्णाटक देशन में अपनी इच्छासे पहुँचे कटकाचल पर्वतके उपवन में मुखमे पापाणकवलकी नाई दिपे उन्मत्तको नाई बाट खोले मन विचरते भये ॥७॥ याके उपरांत पवनके बेगसे कंपित बासांके घसनेसे उत्पन्न जो उग्र दावानल बांसके बनका ग्रसती भई, वाही भग्निके संग वा देहको भस्म करते भये आप अनिमें प्रवेश कर गये अनि संस्कारसे शुभ गति होय है ॥ ८॥ जिनको चरित्र सुनकर कोक वेंक कुटन देशनको गजा श्रीअर्हन नामक उनकी शिक्षा लेकर पूर्व कर्म करके कलियुगमै अधर्म जब बहुत होय आयगा तब स्वधर्मको मार्ग जामे कहीं भय नहीं नाकू त्यागकर ले कुपथ पाखंड जो सबक विरुद ताको सपना बुदि करके ये मंर प्रवर्तन करंगो ॥५॥ जो वो पथ प्रवर्तकरगो वा करवं कलियुगमं जो नुच्छ मनुष्य व मायाले विमोहिन अपने मन मुखी बिधि योगसे शौच आचार विहीन जाग देवरकी अवज्ञा होय से नत अपनी इक्छासे ग्रहण को न स्नान कर न आचमन शौच कर केशको नाच २ कर खाई इनसे आदि ले कुत्सित त कर अधर्म जाम बहुत ऐसे कलियुग करके बुद्धि जिनका ना भई रहवादि गुण विशिष्ट चेतन्य ब्रहा-ब्राह्मण यज्ञ पुरुष लोक सबके निन्दक प्रायः करके होंयगे ॥ १० ॥ जो वेदमें नहीं ऐसी आप लोकयात्रा करके अप परंपरागे विश्वास कर अधम नरकमे अपने आप गिरेंगे ॥1 ॥ ये अवतार राजस है कैवल्यकी शिक्षाके अर्थ है तिनके पीछे जो लोक है उन्हें गावै हैं ॥१२॥ सप्तसमुद्रवती भमीपर सब द्वीपनमें य भरतखण्ड अधिक पुण्यदायक है क्योंकि या भारतवर्ष के जन श्रीमुरारीके मंगलदायक कर्मनको गर्वि है॥ १३ ॥ ये वंश यशसे उज्वल भयो जहां प्रियव्रतके मुत पुमान पुरुप अवतार लेते भये सो आय पुरुषकर्म नाशक धर्मकू करते भये ॥१४॥ ___ संसार निवर्तक श्री ऋषभदेवजी तिनकी दशाको और कौन आदमो पहुँचेगे जो योगमायाकी सिद्धि है तिन्ह वी असत समझकर त्याग ते भये जाकेंलिये आजकलके योगी यत्न करे है ॥ १५ ॥ ये सकल वेद लोक देव ब्राह्मण गौ इनके परम गुरु श्रीभगवान ऋषभ देवको चरित्र अत्यंत विशुद्ध कयो है सो पुरुषनके सब दुष्ट चरित्रनको हरवेवारा है परम महा मंगलदायक या चरित्रको स्थब अत्यंत श्रद्धा करके जो कोई सावधान होयकर मन मुनाव तो भगवान वासुदेवमएकांनसे भोता वक्ताको सम्यक प्रकारसे भक्तिको अनुप्रवर्तक होवे हैं ॥१६॥ जिस भक्तिमें कवि जन निरंतर आत्माकू लगाकर संसारके अनेक प्रकार के पाप तापरो तापित हो नित्य मान मान अपने परम पुरुषार्थसे प्राप्त परमानंददायक अपवर्गका भी अनादर नहीं करते हैं सर्व भावसे सब पुण्यार्थ भगवतमें ही समानकर सब कुछ भगवत कोई मानती ॥ 1..
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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