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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. ५५ ( ११ ) इससंसार में रत्नत्रयधर्मके सिवाय सब वस्तु सुलभ हैं । इसको बोधि दुर्लभअनुप्रेक्षा कहते हैं | ( १२ ) रत्नत्रय धर्म ही इस संसार में सुखका यथार्थ मूल है। इसका नाम धर्मअनुप्रेक्षा हैं ॥ अब महाशय ! मैं आपसे यह पूंछता हूं कि मैंने जो श्रावकका धर्म साधारणतासे आपके सन्मुख कहा है क्या उसमें आपको कोई ऐसी बात मालूम होती है जिससे आप यह कह सक्ते कि जैनमत मलीन आचारोंके समूहके सिवाय और कुछ नहीं हैं ? और जिन व्रतोंकी गृहस्थी जैनको उसके जीवनमें भाज्ञा की है क्या वे यथार्थमें उत्तम नहीं हैं? मुझे खेद है कि मेरे पास इतना समय नहीं हैं कि मैं आपको इन व्रतोंका भाशय विस्तार पूर्वक बता सकूं। मैं आपसे केवल यह पूंछता हूं कि क्या आप उनके देखने मात्रही से यह कह सके हैं कि उनमें कोई ऐसी बात है जिसको मलीन कह सके ? बल्कि क्या आप इन व्रतोंको अहिंसा परमोधर्मके उत्कृष्ट नियमपर स्थिति नहीं देखते ? क्या आप उनमें उत्कृष्ट सदाचारके नियम इकट्ठे किये हुये नाहें देखते ? मैं आपसे पूंछता हूं कि आप यह नहीं देखते कि ये व्रत बारंबार चिल्ला रहे हैं। यह संसार तुम्हारे मनोरथको पूरा नहीं करेगा, इसमें ममता मत करो, अपनी आत्माका ध्यान करो, जहांतक हो सके उतना ही थोड़ा इस संसार से सम्बंध रक्खो, और कैसाही बड़ा काम क्यों न हो अपने अपने स्वभावको (धर्मकी) कभी मत भूलो ? और क्या आप यह नहीं देखते कि ये व्रत आपको योगी अथवा मुनि बननेका उपदेश करते हैं ? (C महाशय ! जैनमत एक निराला मत है । यह योगियोंका मत है, यह उन पुरुषोंका मत है जो संसार और उसकी वस्तुओं को तुच्छ समझते हैं, जो इस संसारसे बहुतही थोड़ा सम्बंध रखते हैं और जो एक प्रतिमासे दूसरी प्रतिमातक उन्नति करके अंत में इस संसारका त्याग कर देते हैं और निर्बंध बन जाते हैं । जैनमत उन लोगोंका उपकारी नहीं है जो इस संसारकेलिये ही जन्म लेते हैं और जो खानेपीने के लालसी वा विलासी हैं। यह मत केवल उन मनुष्योंकेलिये है जो परलोक और मोक्षमें विश्वास रखते हैं और जो हरएक वस्तुको जो उनके निर्व्वणके मार्ग में बाधा डालनेवाली हो हटाकर नग्न वा दिगम्बर बन जाते हैं, सबप्रकारकी परीषह सहन करते हैं और इस संसार, इस जीवन और इस जन्मको दुःखोंकी खानि समझते हैं ॥ महाशयो ! मैं आपसे फिर पूंछता हूं कि जो व्रत श्रावकके ऊपर लिखे हैं उनमें क्या कोई बात ऐसी हैं जो इस बातका उपदेश करती हो कि “स्नान मतकरो ! दन्तधावन मत करो और मलीन रहो "
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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