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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. ४१ सत्य अर्थात् झूठ बोलने के त्यागको यहां ऐसा उत्तम बतलाया है जैसा कि यहाँको वेद कहा है अर्थात् अविचल विश्वासके साथ सत्य बोलनेसे मनुष्यको वही फल प्राप्त होते हैं जो यज्ञोंके करने से होते हैं और सत्यवोलनेवाला उस निर्दयतांक पातकसे बचारहता है जो यज्ञों में होती हैं | महाशयो ! यह सूत्र बड़ा अर्थ सूचक है । इससे यह बात साफ २ जाहिर होती है कि योग करनेवाले वैदिकयज्ञोंको नहीं मानतेथे । विशेषकर यह उस पुरुषकेलिये एक बड़ा जबाब हैं जो वैदिक यज्ञांका पक्ष लेता है सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् अर्थ- जो सत्यमें दृढ़ है वह कर्मोंके फलका आश्रयस्थान हैं || योगी कहता है "हमको यज्ञ नहीं करने चाहिये क्यों कि वे निर्दयतासे दूषित हैं. हमको उनके बदले सत्य बोलना चाहिये और सत्यवादी बनना चाहिये जो बस्तु मनुष्यों के ख्याल में यज्ञोंसे प्राप्त होती हैं, वे सब हमको सत्य बोलने से प्राप्त होंगी. केवल इतना ही नहीं बल्कि अगर हम सत्यका अभ्यास करें तो हमारा ऐसा माहात्म्य होजायगा कि हमारी आज्ञासे यज्ञोंके कल्पित फल हर किसीको मिल सक्के है" ॥ महाशय ! शायद आप कहें कि ऊपर लिखा हुआ सूत्र वैदिक यज्ञ के फलकाखंडन नहीं करता है अगर ऐसा ही है तो योगदर्शन क्यों जीव हिंसाका विल्कु ल निषेध करता है और क्यों सर्वदा सत्र स्थानों में और चित्तकी सब अवस्था अमें वह अहिंसाकी तारीफ़ करता है? यदि यज्ञ गुणकारी होते तो वे योग के सहायक भी समझे जाते परन्तु आश्चर्य की बात है कि वे सहायक नहीं समझे गये ॥ महाशयो ! प्राचीन समय में जो सम्प्रदाय योगका अभ्यास करते थे, वे अवयही वैदिकयज्ञ और जीवहिंसा के विरुद्ध होंगे, चाहे वे किसी मतलबके वास्ते भी क्यों न किये जाँय । इस बातकी सही आप कमसे कम योगियोंकी एक सम्प्रादाय अर्थात् जैनियों के विषय में तो स्पष्ट रूपसे देखसक्ते हैं । यह बात आपको अवश्य याद रखनी चाहिये कि जैनी बड़े योगी हुये हैं । समस्त जैनतीर्थंकर बड़े यो गीश्वर थे ! कोई जनी विना योग किये मोक्ष नहीं पा सक्ता. कमके नाश करने और मोक्ष पाने के लिये योग एक ज़रूरी बात हैं. आप हमारे मंदिरोंमें हमारी मूर्तियों को देखिये ऐसा मालूम होता है कि वे योगाभ्यास कर रहीं हैं। उनके आसन और ध्यानको देखिये और विचार कीजिये कि वे समाधिमें कैसी मग्र हो रहीं हैं यह जैनमूर्तियोंमें ही विशेष बात है । यदि आपको योगाभ्यास करती हुई कोई *
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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