SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. होता है तो ये महावत कहलाते हैं । जब उनके साधनमें किसी प्रकारका विच्छेद ( छोडना ) लगता है तो उनको महावत नहीं कहते ॥ । जिसप्रकार योगीको यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि मैं किसी स्थानमें किसीसमयमें किसी भी जीवकी हिंसा किसी भी मतलबकेवास्ते नहीं करूंगा । इसी प्रकार सत्य,अस्तेय आदिको भी समझना चाहिये क्योंकी इस प्रकारकी प्रतिज्ञायें महाव्रत कहलाती हैं । ३५३ मत्रमें कहा है: अहिंसापतिष्ठायां तत्सन्निधौ पैरत्यागः ॥ ३५ ॥ टीका-तस्याहिंसां भावयतः 'सन्निधौ सहजविरोधिनामप्यहितकुलादीनां 'वैरत्यागः' निर्मत्सरतयावस्थानं भवति । हिंसारता हिंस्रत्वं परित्यजन्तीत्यर्थः ॥ __भाषार्थ-जिसका अहिंसामें पूरा २ प्रण हैं उसके पाश वैरभाव नामको भी नहीं रहता अर्थात् स्वाभाविक निर्दय जीव जैसे सर्प, नौला इत्यादि भी कुछ हानि नहिं पहुंचाते । तात्पर्य यह है कि जिन जीवांका स्वभाव हानि पहुंचाने का है वे भी अपने हानिकारक स्वभावको त्याग देते हैं। इसतरह महाशयो ! आप देखसक्ते हैं कि योगदर्शन में अहिंसाको कैसा मुख्य समझा है। योगीको अपना मनोरथ सिद्धकरनेकेलिये सर्वदा सब स्थानोंमें और सबप्रकारके मतलबकेवास्ते चाहे वह कुछ ही क्यों न हो सर्व प्रकारकी हिंसाका अवश्य ही त्याग करना चाहियाऐसा करनेसे उसका ऐसा प्रभाव होजाता है कि जिन जीवोंमें परस्पर वैर होताहै यदि वे उसके पास आते हैं तो वे तुरन्त अपना वैरभाव छोड देते हैं। योगसूत्रोंमें आद्योपांत यह कहीं नहीं कहा कि यज्ञ भी योनीको सहायता देते हैं. सिर्फ अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ही उसके सहायक होते हैं । ३६ वें सूत्रमें कहा है: सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाः फलाश्रयत्वम् ।। ३६ ॥ टीका-क्रिया मारणादि क्रिया योगादिकाः फलं, स्वर्गादिकं प्रयच्छन्ति । तस्य तु सत्याभ्यासवतो योगिनः तथा सत्यं प्रकृष्यते यथा अकृतायामपि क्रियायां योगी फलमानोति । तद्वचनाद् यस्य कस्यचित् क्रियाकुर्वतोऽपि क्रियाफलं भवतीत्यर्थः ॥१६॥ ___ अर्थ-जो पुरुष सत्यमें दृढ़ है वह कमाँ फलका आश्रय स्थान है । क्रिया यज्ञ है जिनको यदि किया जावेतो स्वर्गादिफलकी प्राप्ति होती है । जो योगी सत्यका अभ्यास करता है ऐसे महात्म्यको प्राप्त होता है कि उसको उन कर्मोके किये बिना ही बे फल मिल जाते हैं और उनकी आज्ञासे हरकोई पुरुष भी उनकोंके किये विना वे फल पा सक्ता है।
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy