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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. बार्थ ( Barth ) साहब कहते हैं कि ब्राह्मण ग्रंथमें कई स्थानपर इसबातकी चर्चा आई है, कि वास्तवमें दूसरा जन्म होता है या नहीं। __ ऋग्वेद अष्टक ६ अध्याय ४, वर्ग ३२ ऋचा १० में अहंदशवेंकनाट अर्थात् असुरोंका वर्णन है, जो इस जन्ममें सूर्यको देखते हैं परन्तु दूसरे जन्ममें ऐसे लोकमें नायगे जहां अंधकार छाया हुआ है कदुमहीर धृष्टा अस्यत विषीः कटु वृत्रनो अमृतम् । इन्द्रा विश्वान्वेकनायं अर्हदृशउतक्रत्वा पणी रंभा ॥ १० ॥ सायनभाण्य-कद् कदा खल्वस्येन्द्रस्यतविषीर्वलानि मही:महान्ति अष्टाःअधृष्टान्य धर्ष काण्यासन कदु कदा नु खलु वृत्रघ्नो वृत्रहन्तुरिन्द्रस्य हन्तव्य मस्तृतं अहिंसितं अभवत् न कदाचिदित्यर्थः । अथवास्य महान्ति बलानि सेना लक्षणानि कदाप्य धृ. पानि अन्य क्लैरहिसितानि तथा वृत्रघ्नःशारीरं बलं अस्तृत मन्यैरहित्यं ईदृशेन द्विविधेनवलेनेंद्रोविश्वानसर्वान्वंकनाटानअनेनकुसीदिनो वृद्धिजीविनोवार्युषिकाउच्पन्ते कथंतात्पत्तिः वे इति अपभ्रंशोद्विशब्दार्थ एकं कार्षापणमृणिकायप्रयच्छन्द्वौमचंदात यौनपेनदर्शयति ततोद्विशब्देनकगदैनवनाटपंतीतिबेकनाटाःतानहईशःअहःशब्देन तदुत्पादक आदित्यो भिधेयो भवति तं पश्यन्तीत्यहडेशः । ननु सर्वे सूर्य पश्यन्ति कोत्रातिशय इति उच्यत इहैव जन्मनिमय पश्यन्ति न जन्मान्तरे लुब्धका अयष्टारोन्धेतमसि मज्जन्ति । अथवा लौकिकान्येवाहानि पश्यंति पारलौकिकान्यदृष्टानि दृष्टप्रधाना हि नास्तिकाः अतः ईदृशान् पीन पणिसदृशान् शूद्रकल्पान् उतशब्द एवार्थकत्वोतकर्मणैवताडनादि व्यापारेणैवाभिभवतीति शेषः । यद्वा पणी नुत पणीने वाभि भवति नयष्टारं ! पणीनानिन्दास्मयते-गोरक्षकानापणिकांस्तथाचकारुशीलकान् । प्रेष्यान्वाधषिकश्चैिवविप्रान शूद्रवदाचरेत् इति ॥ अर्थ-इन्द्रकी बडीसेना अन्योको घर्षण न करनेवाली कब हुयी और वृत्रके मारनेवाले इन्द्रक माग्न योग्य जो पुरुषथे वे उससे न माग्गये ऐसा भी कब हुवा अर्थात् कभी नही? अथवा इन्द्रकी सेनाका घर्षण कभी किसीस भी नहीं कियागया, और इन्द्रके शारी गिक बलको भी कभी किसीने बाधित नहीं किया, ऐसे दोप्रकारके बलसे इन्द्रने सववेक नाटोंको ( इससे व्याज बटेसें जीनेवाले लोग लिये जाते हैं. व्युत्पति इसप्रकार है. वे यह अपभ्रंश दो के अर्थ है.एक कार्यापण उधारलेनेवालेकोदेकर दो मुझेदेना ऐसे उधारदेनेवाले लोग कहते है. तथाच द्विशब्दसे और एकशब्दसे जो व्यापार करते हैं,वे वेंकनाट कहलाते हैं ) जो अहर्दश हैं। अहःशब्दसे दिनका करनेवाला सूर्य कहाजाता है, अर्थात् जो सूर्यको देखते है यहां शंका होती है कि सूर्यको तो सभी देखते हैं इस कहनेमें विशेष क्या हवा इसके उत्तरमे कहते हैं---कि इसी जन्ममें सूर्यको देखते हैं दूसरे जन्ममें
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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