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________________ कोटि कोटि कण्ठों से क्या जाने भिक्षु की : २२: गाएं जिनके गीत सुरम्य रे । महिमा कैसी अलख अगम्य रे ॥ है ममकार बन्ध का कारण, यह ग्राध्यात्मिक शैली | स्वामीजी के जीवन के कण-कण में देखी फैली | है तेरापंथ भदन्त, कहा यों प्रभु पादाव्ज प्रणम्य रे ॥१॥ जिनके श्रम से हमें मिला यह शासन सुखद बगीचा | नन्दन - वन की सुषमा लें सब, ऊंचा कौन है नीचा । जीवन की सफल सुरक्षा है, जहां अननुमेय अनुपम्य रे ॥२॥ तार्किक युग में भी श्रद्धा का स्थान सदा है ऊचा । केवल तर्कवाद से पीड़ित है संसार समूचा । हो तार्किक श्रद्धालु गण में एकान्ताग्रह अक्षम्य रे ||३|| मर्यादा निर्माण कला में देखा तरुण तरीका | एकतन्त्र में प्रजातन्त्र का सबक कहां से सीखा ? सब शिष्यों में भर दिया, भरेगा जो उत्साह अदम्य रे ॥४॥ भरा खजाना । प्रत्त्युत्पन्न बुद्धि का वैभव अक्षय औरों को शिक्षा देने का किसने तत्त्व पिछाना ? मत बोलो, पर व्यवहार करो अपना तन-मन संयम्य रे ॥५॥ ५४] लय-बड़े प्रेम से मिलना सबसे [ श्रद्धेय के प्रति
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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