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________________ २१ हम वह आदर्ग दिखाए। शामन की मुपमा दुनिया के कोने-कोने फैलाए । सचमुच हम कितने सौभागी (जो) सदा त्रिवेणी से न्हाए । मानव-जीवन, जैनधर्म और भैक्षव गामन पाए ॥१॥ एक-एक गण की मर्यादा जीवन प्राण बनाए । 'देह त्यजेन्न धर्म सामन' दृट मकल्प मझाए ||२|| सीमित मवेदन हो सवका, ग्राम्या को अपनाए। इधर-उधर नही टोले तिल भर, 'पटवोजी' बन जाए ॥३॥ सीचातान करे क्यो कोई, (जो) तत्व समझ में नाए। क्यो ऊडे जल पेठे, गणपति निज कर्नव्य निभाए ॥४॥ ममझ भेद को ममझौते मे मिल जुल कर मुलझाए। बिछुडे दिल को हो यदि सम्भव अपने माथ मिलाए ||५|| अनुगामन का भग अगर हो ममुचित पदम उठाए। आमिर नाक भाल मे नीचे रह कर गोभा पाए ।।६।। एकानार, रिचार शृगला, जुग-जुग जुड़ी रहाए । 'तुलनो' यह मर्याद-महोत्सर गण-वन को विषमाए ॥७॥ वि० स० २०१२, मर्यादा महोसव, भीलवाहा (राज.) द-भाग पौनाने में व
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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