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________________ - चतुर्दश अध्याय ... स्थानकवासी परम्परा की मान्यता है कि देवधिगणी क्षमाश्रमण ने जो अंगसाहित्य लिपिबद्ध कराया था वह भगवान महावीर की हो वाणी है, अतः वह सर्वथा प्रामाणिक है, किन्तु दिगम्बर परम्परा इस बात को स्वीकार नहीं करती है, उसका विश्वास है कि अंगसाहित्य भगवान महावीर की वाणी नहीं है । अतः वह . इस अंगसाहित्य को प्रामाणिक रूप में स्वीकार करने से इन्कार __ करती है। . . . . . . : ......... भरत को सींस-महल में केवल-ज्ञान . इतिहास बतलाता है कि एक बार भगवान ऋषभदेव के बड़े पुत्र भरत महाराज स्नान करके तथा वस्त्र आभूषणों से अलं.. कृत होकर आदर्शभवन सीसमहल में गए । वहां दर्पण में अपना . ... रूप देखने लगे । अचानक एक हाथ की अंगूठी अंगुलि में से निकल... कर नीचे गिर पड़ी। तब दूसरो अंगुलियों की अपेक्षा वह अंगुलि .. असुन्दर प्रतीत होने लगी। भरत जी महाराज को. विचार आया कि यह शोभा केवल सोने के आभूषणों के धारण करने से ही है .. या वैसे स्वाभाविक है ? दूसरी अंगुलि की अंगूठी भी उतार-दी। . यहां तक कि अन्त में, मस्तक का मुकुट तक सर से उतार दिया.। . पत्ररहित वृक्ष जैसे शोभाहीन हो जाता है। उसी प्रकार की अवस्था अपने शरीर को देखकर भरत महाराज की अन्तरात्मा बोल उठी-वस्तुतः यह शरीर सुन्दर नहीं है। इस की जो सुन्द.. रता है, वह भी वाह्य पदार्थों पर आश्रित है। जिस प्रकार अने.. कविध चित्रों से दीवार; को शृंगारित कर दिया जाता है । उसी - प्रकार केवल प्राभूषणों से ही इस शरीर की शोभा. दृष्टिगोचर ... होती है । इसका वास्तविक स्वरूप तो कुछ और ही है । भरत म० .
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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