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________________ चतुर्दश अध्याय ६८१. गया। अन्त में, ज्ञान के बढ़ते हुए ह्रास को रोकने के लिए स्वयं श्री स्थूलभद्र जी महाराज ग्रन्य चार मुनिराजों के साथ कर्णाक देश की ओर चल पड़े। और प्राचार्यप्रवर श्री भद्रबाहु स्वामी की सेवा में पहुंच कर उन्होंने स्वयं ही अपने अन्य साथियों के साथ ग्राचार्य महाराज से पूर्वो का अभ्यास करना प्रारम्भ किया । • ज्ञान की साधना भी बड़ी कठोर साधना है, कोई शक्ति - सम्पन्नः जीवन ही इस का पार पा सकता है। पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करना तो फिर और भी कठिन समस्या थी । अतः पूर्वो के ज्ञानाभ्यांस की कठोरता ने श्री स्थूलिभद्र के सभी साथियों को निराश कर दिया । केवल श्री स्थूलभद्र जी ही ऐसे निकले जो दृढ़ता और स्थिरता के साथ ग्रागे बढ़ते रहे। इस तरह श्रम करते-करते श्री स्थूलभद्र को प्राशातीत सफलता मिली और उन्होंने १० पूर्वों का ज्ञान प्राप्त कर लिया । 1 एक बार श्री स्थूलभद्र जी महाराज की बहिनें अपने भाई के दर्शनार्थ श्राई | वहिनों को अपनी विद्या का प्रभाव दिखलाने के लिए श्री स्थू लिभ जी ने रूप परिवर्तिनी विद्या द्वारा अपने को सिंह बना डाला। भाई की जगह सिंह देखकर बहिनें डर गईं । प्राचार्यदेव से निवेदन किया गया कि श्री स्थूलभद्र जी महाराज के स्थान पर सिंह बैठा है। ज्ञानी गुरुदेव सब बात समझ गए। विद्या पचाने की क्षमता का प्रभाव देख कर प्राचार्यदेव ने श्री स्थूलभद्र जी को पढ़ाना बन्द कर दिया | संघ ने इस भूल की क्षमा मांगी तथापि वे नहीं माने । संघ का अत्यधिक आग्रह देखकर अन्त में श्राचार्यदेव ने शेष चार पूर्वो का केवल मूलपाठ ही पढ़ाया, उनका श्रर्थं सामझाने से उन्होंने स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस तरह श्री. स्थूलभद्र जी म० के सामान्य से विद्यामद ने १४ पूर्वो में से ४ का
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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