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________________ ड दी थी, वही से उन्होंने इस कार्य को चालू कर दिया था । समदर्शी जी को सम्पादन कला की विशेषता के सम्बन्ध मे मै क्या कहूं ? सक्षेप में इतना ही निवेदन किए देता हू कि समदर्शी जी की लेखनी का स्पर्श पा कर प्रश्नो के उत्तर' इस पुस्तक का कायाकल्प हो हो गया है। श्री समदर्शी जी के इस प्रेम भरे श्रम के लिए मै इनका आभारी हू । अन्त से, मै परम श्रद्धेय जैनधर्म - दिवाकर आचार्य सम्राट् गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जो महाराज के पावन चरणो का आभार मानता हू क्योकि इन्ही के परम प्रताप से, तथा कृपाभाव से हो मै इस पुस्तक को लिखने की क्षमता प्राप्त कर सका हू । जैनदर्शन एक प्रथाह सागर है, जिसका किनारा प्राप्त करना मेरे जैसे ग्ररूप- बुद्धि के वश की बात नही है । तथापि मै इस पुस्तक मे जैनधर्म के सम्बन्ध मे जो कुछ लिख सका हू, उस के पीछे मेरे धर्माचार्य ग्राचार्य सम्राट् पूज्य गुरुदेव श्री श्रात्माराम जी महाराज का प्रबल अनुग्रह हो काम कर रहा है । मेरा अपना इसमे कुछ नही है । इसके मूल स्रोत तो श्रद्धेय गुरुदेव प्राचार्य - सम्राट् ही है । - ज्ञान मुनि
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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