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________________ ( 68 ) 15 देशश-जिस देश में आचार्य की विहारादि क्रियाएं हो रही है। उस देश के गुण कर्म और स्वभाव के जानने वाला हो तथा-देश भाषा वा देश का वेश तथा देश के यथोचित कार्यों का भली प्रकार ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि-जव देश का परिज्ञान ठीक होगा तब वह किसी भी कार्य मे स्खलित नहीं हो सकेगा। 16 कालज्ञ-जिस प्रकार देश के बोध से परिचित होना अत्यावश्यकीय है, उसी प्रकार काल ज्ञान से भी परिचित होना चाहिए। क्योंकिस्वाध्याय ध्यान, गोचरी, प्रतिलेखना तथा प्रतिक्रमणादि क्रियाएं सव काल के काल ही की जा सकती हैं। जब काल ज्ञान ठीक होगा तव उक्त क्रियाओं के करने से कोई वाधा उपस्थित नहीं हो सकेगी। जिस का परिणाम आत्मविकाश के होने में सहायक होगा। अतएव प्राचार्य कालश अवश्य होना चाहिए तथा बहुत से क्षेत्रों में भिक्षा का समय पृथक् 2 होता है, जब उस क्षेत्र का भिक्षा का समय ठीक विदित होगा, तव आत्म-समाधि में किसी प्रकार भी बाधा उपस्थित नहीं होगी। यदि समय का भली प्रकार से वोधन होगा, तब अपने आत्मा में असमाधि और क्षेत्र की अवहेलना करने का उस को अवकाश प्राप्त हो जायगा। ये सब कारण समयज्ञ न होने के ही लक्षण हैं। 17 भावज्ञ-दूसरों के भावों का जानने वाला हो। क्योंकि-जब अंगचेष्टाओं द्वारा पर पुरुष के भावों का बोध हो जाता है, तब उस अत्मा को सुवोधित करना सुगम हो जाता है, क्योंकि-जब तक भाव नहीं हुआ जाता तब तक उस व्यक्ति पर किया हुआ परिश्रम सफलता करने में संशयात्मक ही रहता है। जिस प्रकार लक्ष्य के स्थापन किये बिना परिश्रम व्यर्थ हो जाता है, तथा उद्देश्य के ग्रहण किये विना निर्देश नहीं किया जाता, ठीक तद्वत् भावों के जाने विना किसी समय अर्थों के स्थान पर अनर्थों के उत्पादन करने की सम्भावना की जा सकती है। जिस प्रकार क्षुद्र परिषद् के सन्मुख समभाव युक्त उपदेश फलप्रद नहीं होता , किन्तु किसी समय लाभ के स्थान पर हानि का उत्पन्न करने वाला हो जाता है। अतएव सिद्ध हुआ कि- 'भावज्ञ" ही होकर प्रत्येक कार्य करना चाहिए / जब भावों के परिचित हो जाने पर कार्य किया जायगा तव उसकी सफलता में विलम्ब नहीं लगेगा वा अल्प परिश्रम के द्वारा महत् लाभ का कारण उपस्थित हो जायगा। 18 आसन्नलब्धप्रतिम-वादी द्वारा प्रश्न किये जाने पर अतीव योग्यता के साथ युक्ति पूर्वक समाधान करने की जो शक्ति है, उसको "श्रासन्नलब्धप्रतिभ" कहते हैं / युक्ति-संगत समाधान द्वारा जो ज्ञान विशद रूप में प्रकट हो गया है
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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