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________________ ( 64 ) वर्तमान कालीन 256 साढे पच्चीस आर्य कथन किये गये हैं, जैसे किराजगृहनगर-मगधजनपद 1 अंगदेश-चंपानगरी 2 वंगदेश-ताम्रलिप्ती नगरी 3 कलिंग देश-कंचनपुर नगर 4 काशी देश-वाराणसी नगरी 5 कोशल देश-साकेतपुर अपरनाम अयोध्या नगर 6 कुरुदेश-गजपुर (हस्तिनापुर) नगर 7 कुशावर्त देश-सौरिकपुर नगर 8 पंचाल देश-कांपिलपुर नगर 6 जंगलदेश-अहिछन्ता नगरी 10 सुराष्ट्र देश-द्वारावती (द्वारिका ) नगरी 11 विदेह देश-मिथिला नगरी 12 वत्सदेश-कौशांवी नगरी१३ शांडिल्य देशनंदिपुर नगर 14 मलय देश-भहिलपुर नगर 15 वच्छदेश-वैराट नगर 16 वरुण देश-अच्छापुरी नगरी 17 दशार्ण देश-मृत्तिकावती नगरी 18 चेदिदेशशौक्तिकावती नगरी 16 सिंधुदेश-वीतभय नगर 20 सौवीरदेश-मथुरा नगरी 21 सूरसेन देश-पापानगरी 22 भंगदेश-मासपुरिवहा नगरी 23 कुणाल देशश्रावस्ती नगरी 24 लाढदेश-कोटिवर्ष नगर 25 श्वेतविका नगरी-केकय आधा (0 // ) देश ये साढे पच्चीस (25) आर्य देश हैं / इन देशों में ही जिन-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेवादिआर्य-श्रेष्ठ पुरुषों का जन्म होता है, इस वास्ते इनको आर्य देश कहते हैं। ये सब आर्य देशविंध्याचल और हिमालय के बीच में हैं। यद्यपि कतिपय ग्रंथों में उक्त नगरियों के साथ ग्रामों की संख्या भी दी हुई है, किन्तु सूत्र में केवल देश और नगरी का ही नामोल्लेख किया हुआ है। इस लिये यहां ग्रामों की संख्या नहीं दी गई। साथ में इस के अपवाद में यह भी समझ लेना चाहिए कि-देश आर्य और पुरुष भी आर्य 1, देश भार्य पुरुष अनार्य 2, देश अनार्य पुरुष आर्य 3, और चतुर्थ भंग में देश भी अनार्य और पुरुष भी अनार्य 4 तात्पर्य यह है कि-देश आर्य और पुरुष आर्य यह भंग तो अत्यन्त उपादेय है, यदि देश अनार्य और पुरुष आर्य हो तो वह भंग सर्वथा उपेक्ष्य नहीं है अतएव व्यवहार पक्ष में देश आर्य होना आचार्य का प्रथम गुण है। 2 कुलार्य-जिस प्रकार आर्य देश की आवश्यकता है उसी प्रकार कुलार्य की भी अत्यन्त आवश्यकता है, कारण कि-आर्य कुलों में धर्म-सामग्री, विनय और अभक्ष्य पदार्थों का परित्याग यह गुण स्वाभाविक ही होते हैं और पितृ-पक्ष से जो वंश शुद्ध चला आ रहा है उसे ही आर्य कुल कहते हैं। 3 शुद्ध जाति--जिस प्रकार शुद्ध भूमि विना वीज भी प्रफुल्लित नहीं हो सकता; ठीक उसी प्रकार प्रायः शुद्ध जाति बिना समग्र गुणों की प्राप्ति भी कठिन है क्योंकि-यदि जाति शुद्ध होगी तो लज्जा भी स्वाभाविक होगी जिस के कारण वहुत से अवगुण दूर हो कर गुणों की प्राप्ति हो जाती है अतएव
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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