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________________ अथ द्वितीया कलिका धम्म देवा! सेकेण्डेणं भंते एवं बुच्चइ धम्मदेवा धम्मदेवा ? गोयमा! जे इमे अणगारा भगवंतो ईरिया समिया जाव गुत्त बंभयारी से तेणठेणं एवं बुच्चइ धम्मदेवा। भगवतीसूत्र * शतक 12 उद्देश है / भावार्थ-श्रीगौतम स्वामी जी श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछते हैं कि-हे भगवन् ! धर्मदेव किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान् कहने लगे कि हे गौतम ! जो ये साधु भगवंत हैं ईर्यापथ की समिति वाले यावत् साधुओं के समग्र गुणों से युक्त गुप्त ब्रह्मचारी उन्हीं पवित्र / आत्माओं को धर्मदेव कहा जाता है। क्योंकि वे मुमुक्षु आत्माओं के लिये आराध्य हैं, और धर्मपथ के दर्शक हैं, इसी कारण वेधर्मदेव हैं / अतएव देवाधिदेव के कथन के पश्चात् अब गुरुविषय में कहा जाता है / यद्यपि सूत्र पाठ में साधु का नाम धर्मदेव प्रतिपादन किया गया है तथापि इस स्थान पर गुरु पद ही विशेष ग्रहण किया जायगा कारण कि-यह पद जनता में सुप्रचलित और सुप्रसिद्ध है। जिस प्रकार देव पद में अरहंत और सिद्ध यह दोनों ग्रहण किये गए हैं; उसी प्रकार गुरुपद में प्राचार्य उपाध्याय और साधु ये तीनों पद ग्रहण किये गए हैं / इस प्रकार देव और गुरुपद में पांच परमेष्ठीपद का समावेश हो जाता है तथा गरिगणवच्छेदक प्रवर्तक और स्थविरादि साधुगण भी साधु शब्द में संगृहीत किये गये हैं। अतः ये सब गुरु पद में ग्रहण करने से इनकी व्याख्या भी गुरुपद में ही की जायगी। साथ में यह भी कहना अनुचित न होगा कि यावत् काल आत्मा देव और गुरु से परिचित नहीं होता तावत् काल पर्यन्त वह धर्म के स्वरूप से भी अपरिचित हीरहता है, क्योंकि जब तक उसको देव और गुरु का पूर्णतया बोध नहीं होगा तब तक वह उनके प्रतिपादन किये हुए तत्त्वों से भी अनभिज्ञ रहेगा। शास्त्रों का वाक्य है कि-दो प्रकार से आत्मा धर्म के स्वरूप को जान सकता है। जैसे कि- सौच्चाचैव अभिसमेच्चा चैव" अर्थात् सुनने और विचार करने
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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