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________________ तथा राग द्वेष रूपी शत्रुओं के जीतने से अनन्तनाथ प्रभु को अनन्तजित भी कहते है तथा जव श्रीभगवान् गर्भस्थ थे तब माता ने अनन्तरत्मदाम को देखा वा जीता इस कारण भी अनन्तजित् कहते हैं / सुविविस्तु पुष्पदन्त. पुष्प कलिका के समान अति मनोहर दन्त होने से सुविधिनाथ स्वामी को पुप्पदन्त भी कहते हैं / मुनिसुव्रतसुत्रतो तुल्यो मुनिसुव्रत स्वामी को सुव्रत भी कहते हैं। जैले समास में सत्यभामा भामा" इस प्रकार प्रयोग सिद्ध किया जाता है। अरिष्टनेमिस्तु नेभि. अशुभ पदार्थों के नेमिवत् प्रध्वंस करने से अरिपनेमि तथा जय श्री भगवान् गर्भावास में थे तब माता ने स्वप्न में अरिटरत्नमय महानमि (चक्रधारा) को देखा था इसी कारण अरिएनेमि नाम स्थापन किया गया। अपश्चिमादिशब्दवन्नम् पूर्वत्वेऽरिष्टनेमिः अपश्चिमादिशब्दवत् नपूर्वक होने से अरिष्टनेमि शब्द की व्युत्पत्ति सिद्ध होती है / वीरश्वरमतीर्थकृत् महावीरों पईमानो देवार्यों जाननन्दन. वीर भगवान् को चरमतीर्थकृत् अन्तरंग शत्रुओं के जीतने ले महावीर, उत्पत्ति से लेकर ज्ञानादि की वृद्धि होने ले बर्द्धमान तथा जव श्रीभगवान् गर्भावास मे थे तव उन के कुल मे धन धान्यादि अनेक पदार्थों की वृद्धि हुई, इस कारण वर्द्धमान नाम संस्कार किया गया / देवों वा इन्द्रों का स्वामी होने से देवार्य तथा ज्ञात कुल में उत्पन्न होने से वा ज्ञात जो सिद्धार्थ राजा है उसका नन्दन होने से ज्ञात नन्दन भी कहते हैं। श्री तीर्थकर देवों के सर्व नाम गुणनिप्पन्न होते हैं इन नामों का भव्य प्राणी अवलम्वन करते हुए वा इन नामों के गुणों में अनुराग करते हुए इतना ही नहीं किन्तु अपने आत्मा में उन गुणों को स्थापन करते हुए तथा यथावत् उन गुणों का अनुकरण करके अपने आत्मा को पवित्र करें। अतएव देवपद में श्री सिद्ध परमात्मा और अर्हन् देव दोनों लिये गए हैं / देहधारी वा परमोपकारी होने से प्रथम पद मे श्री अर्हन् देवों का ही आसन लिया गया है, इस लिये चतुर्विशति तीर्थंकरों के विषय में कुछ अावश्यकीय वातों का विषय लिखा जाता है।
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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