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________________ (47) की आवश्यकता है तदनु निरालम्वनध्यान की जिस का वर्णन आगे किसी स्थल पर किया जायगा। उक्त 31 गुणों को श्राश्रित करके पूर्वाचार्यों ने सिद्धों के संक्षेप से ८ही गुण वर्णन किये हैं जैसे कि-अनंतज्ञानत्वं 1, अनंतदर्शनत्वं 2, अव्यावाधत्वं 3 सम्यक्त्वं 4 अव्ययत्वं५अरूपित्वं 6 अगुरुलघुत्वं७ अनंतवीर्यत्वं ८.सो ये पाठ हीगुण आठ कमों के क्षय होने पर ही उत्पन्न हुए हैं। जैसे कि-ज्ञानावरण के क्षय हो जाने से अनंत ज्ञान उत्पन्न हो गया, इसी प्रकार दर्शनावरण के क्षय हो जाने से अनंत दर्शन प्रकट हो गया / वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से अव्यावाधता सुख की प्राप्ति हो गई। क्योंकि अनंत सिद्धों के प्रदेश परस्पर संमिलित हो जाने पर भी वे पीड़ा से रहित होते हैं। कारण कि-शुद्ध प्रदेशों का परस्पर संमिलित हो जाना अव्यावाध सुख का देने वाला होता है। जैसे प्रात्म-प्रदेशों पर शान द्वारा देखे गए घट पटादि पदार्थों के प्रतिविम्ब अंकित हो जाने पर भी किसी प्रकार की पीड़ाउत्पन्न नहीं होती, ठीक तद्वत् सिद्धों का जो परस्पर सम्बन्ध है, वह भी अव्यावाध सुख का उत्पन्न करने वाला होता है। मोहनीय कर्म के क्षय करने से उनको क्षायिक सम्यक्व रत्न की प्राप्ति हो गई है तथा मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने से अनंत सुख की प्राप्ति हो गई है, क्योंकिमोहनीय कर्म द्वारा जो सुख उत्पन्न होता है वह क्लेश-जन्य होने से स्व स्वरूप का प्रकाशक नहीं माना जा सकता तथा अस्थिर गुण होने से वह सुख-विनाशक भी माना जाता है / अतः मोहनीय कर्म के रहित हो जाने से वे अनंत सुख के अनुभव करने वाले होते हैं / श्रायुष्कर्म के होने से ही प्रात्मा की वाल्य, यौवन वा वार्द्धक्य तथा रोगित्व और नीरोगित्वादि दशा होती हैं। जब आयुष्कर्म के प्रदेश प्रात्म-प्रदेशों से पृथक् होजाते हैं, तब यही श्रात्मा "अव्ययत्वं " गुण का धारण करने वाला होजाता है / क्योंकि-श्रायुष्कर्म के प्रदेशों की स्थिति उत्कृष्ट 33 सागरोपम होती है अतएव उक्त कर्म स्थिति युक्त है। जय कर्म स्थितियुक्त है तब वह सादिसान्त पदवालाहोता ही है। जब सिद्धों के श्रायुष्कर्म का अभाव होजाता है, तव वे सादि अनन्त पद को धारण करते हुए "अव्ययत्वं" गुण के धारण करने वाले भी होते हैं। श्रायुष्कर्म के न होने से फिर वे "अरूपित्वं' (अमूर्तिक) गुणको धारण करते है / कारण कि-नाम कर्म के होने से ही शरीर की रचना होती है जव नाम कर्म क्षय करदिया गया, तब वे शरीर से रहित होगए / सो शरीर से रहित आत्मा श्रमूर्तिक और अरूपी होता ही है। क्योंकि आत्मा का निज गुण अमूर्तिक है। नाम कर्म के नष्ट होने से वह गुण प्रकट हो जाता है / इसलिये सिद्ध परमात्मा को अमूर्तिक कहा जाता है. कारण कि-नाम, कर्म, वर्ण, गंध.
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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