SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 43 ) इस लिये जीव और अजीव यह दोनों पदार्थ भी अनादि अनन्त हैं। प्रश्न- हे भगवन् ! क्या पहिले भवसिद्धिक (मोक्ष जाने घाले) जीव हैं या अभवसिद्धिक (मोक्ष गमन के अयोग्य ) जीव है ? उत्तर-हे रोह ! भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक ये दोनों प्रकार के जीव भी अनादि काल से चले आते हैं; कारणकि भव्य और अभव्य ये स्वाभाविक भाव वाले हैं, परन्तु विभाव परिणाम वाले नहीं हैं। प्रश्न- हे भगवन् ! क्या पहिले सिद्धि है या असिद्धि ? उत्तर-हे रोह ! अकृत्रिम होने से मुक्ति और अमुक्ति ये भी अनादि हैं। प्रश्न- हे भगवन् ! पहिले सिद्धात्माएं हैं, या असिद्धात्माएं अर्थात् पहिले सिद्ध परमात्मा है या संसारी आत्माएं हैं ? उत्तर--हे रोह ! सिद्ध और संसारी आत्माएं ये दोनों ही अनादि भाव से चले श्रारहे हैं; अतः इनको पूर्व या पश्चात् भावी कदापि नहीं कहा जा सकता / सो जव जैन मत संसार और मोक्ष पद को अनादि स्वीकार करता है तव यह किस प्रकार कहा जासकता है कि-उक्त चौवीस तीर्थकर ही जैनों के परमात्मा, हैं अन्य कोई भी जैन मत में सिद्ध (ईश्वर) नहीं माना गया है। हां जैन मत यह अवश्य मानता है कि रागत्तेण साईया अपज्जवसियाविय पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया विय। उत्तराध्ययन सूत्र अ. 36 गाथा-६६ अर्थ-एक सिद्ध की अपेक्षा मोक्ष पद सादि अनन्त कहा जाता है और बहुतों की अपेक्षा अनादि अनन्त है अर्थात् जब हम किसी एक मोक्ष गत जीव की अपेक्षा विचार करते हैं। तव हमको मोक्ष-विषय सादि अनन्त पद मानना पड़ता है / कारण कि-जिस काल में वह अमुक व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त हुआ उस काल की अपेक्षा उसकी आदि तो है परन्तु अपुनरावृत्ति होने से उसे फिर अनन्त कहा जाता है, परंच जब सिद्ध पद को देखते हैं अर्थात् वहुत से सिद्धों की अपेक्षा से जव विचार किया जाता है तब सिद्ध पद अनादि अनन्त माना जाता है। कारण कि-जिस प्रकार संसार अनादि है उसी प्रकार सिद्ध पद भी अनादि है तथा अनन्त सिद्ध होने से गुणों की अपेक्षा किसी नय के मत से एक सिद्ध भी कहा जासकता है क्योंकि-भेद भाव नहीं होता। "जत्थ एगो सिद्धो तत्थ अणन्त खय भवविमुक्को" इत्यादि / अर्थ-जहां पर एक सिद्ध है वहां पर अनंत सिद्ध विराजमान हैं। जिस प्रकार एक पुरुष के अन्तर्गत नाना प्रकार की भाषाएं निवास करती हैं जैसे
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy