SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी मुक्त होते हैं 8 अरति-और नाहीं उनका पदार्थों पर कोई द्वेष भाव ही है क्योंकिजब किसी पदार्थ पर उनकी प्रीति सिद्ध की जाएगी तव अमुक पदार्थ पर द्वेष का हो जाना एक स्वाभाविक बात है। अतः वे उक्त दोष से सदैव भीति-श्रीभगवान् सव प्रकार के भयों से भी वर्जित होते हैं। क्योंकिभय का उत्पन्न होना एक अल्प सत्व और मोहनीय कर्म का उदय है, सोचे एक तो अनन्त शक्तिवाले और द्वितीय मोहनीय कर्म से रहित तो फिर उनको भय किस प्रकार उत्पन्न होसके ? तथा भय के उत्पन्न होने से व्यावहारिक पक्ष मे एक शत्रु भी मुख्य कारण माना जाता है, सो श्रीभगवान् सव जगत् वासी जीवों के मित्र रूप हैं और उनकी रक्षा करने वाले हैं, तो भला फिर उनको भय किस प्रकार उत्पन्न हो सके ? अतः वे उक्त दोप से भी विमुक्त होते हैं। 10 जुगुप्सा-उन को किसी पदार्थ से घृणा भी नहीं है। क्योंकि घृणा रागी और द्वेपी आत्मा को ही उत्पन्न हो सकती है अतएव वे उक्त दोनों दोपों से रहित है, तथा घृणा वाला पुरुप मार्दव भाव से रहित होता है श्रीभगवान् तो मार्दव गुण से विभूपित ही हो रहे हैं वा व्यावहारिक दशा में भी घृणा करने वाले पुरुष को सुदृष्टि से नहीं देखा जाता / तथा जब वे अपने ज्ञान मे प्रत्येक पदार्थ की अनंत पर्यायों को देखते हैं, तो फिर वे किस पदार्थ पर-घृणा करें ?सो वे जुगुप्ता रूप दोप से भी रहित हैं। 11 शोक-श्रीभगवान् शोक से भी रहित हैं। क्योंकि-शोक उसी आत्मा को उत्पन्न हो सकता है जो राग द्वेप युक्त हो तथा संयोग औरवियोग के रस से युक्त हो / सो श्रीभगवान् उक्त दोपों से रहित होने के कारण चित्त की अशान्ति से भी रहित होते हैं। 12 काम-भगवान् काम के दोष से भी रहित हैं: क्योंकि-काम की वासनाएं केवल मोहनीय कर्म के उदय से हो सकती है। सो श्रीभगवान् ने मोहनीय कर्म पहिले ही क्षय कर दिया है / तथा कामी आत्मा कभी सर्व हो ही नहीं सकता,और श्रीभगवान् सर्वज्ञ पद से विभूपित होते है। अतएव वे काम के दोष से भी रहित हैं। . 13 मिथ्यात्व--श्रीभगवान् मिथ्यात्व के दोष से भी रहित है / क्योंकिअनादि काल से जीव मिथ्यात्व दशा से ही जन्म मरण करता चला श्रा रहा है। पदार्थों के स्वरूप को विपर्यय भाव से जानने का ही नाम मिथ्यात्व है सोश्रीभगवान उक्त दोप से रहित हैं। तथा मिथ्यात्व दशा में ही पड़े हुए जीव सद्बोध से रहित होते हैं। फिर इसी कारण से संसार में नाना प्रकार के मिथ्या प्रपंच उत्पन्न किये
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy