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________________ ( 23 ) यहां पर प्रगट हो जाते हैं। 21 पच्चाहरो वियणं हिययगमणीओ जोयणणीहारीसरो। श्रीभगवान् का व्याख्यान करते समय हृदय में गमनीय और अति मधुर एक योजन प्रमाण स्वर (वाणी) होता है अर्थात् श्री भगवान का स्वर एक योजन प्रमाण होता है, जिस से श्रोताओं को उस स्वर द्वारा सुख पूर्वक मान हो जाता है। 22 भगवंचणं अद्धमागहीएं भासाए धम्ममाइक्खइ / श्रीभगवान् अर्द्धमागधी भाषा मे धर्म कथा करते हैं / प्राकृत 1 संस्कृत 2 शौरसेनी ३मागधी 4 पैशाची५और अपभ्रंश६ यह पट भाषाएं है, इन में जो "रसोललोमागध्याम्" इत्यादि सूत्र मागधी भा के वर्णन करने में आते हैं। उन लक्षणों से युक्त और प्राकृतादि से युक्त अर्द्धमागधी नाम वाली भाषा में श्रीभगवान् धर्म-कथा करते हैं 23 सावियणं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेंसिं सबसि आरिय मणारियाणं दुप्पए-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि सरीसिवाणं अप्पणोहिय सिवसुहयभासत्ताए परिणमइ / वह अर्द्धमागधी भाषा भाषण की हुई उन सर्व आर्य अनार्य द्विपद (मनुष्य ) चतुष्पद (गवादयः) मृग (अटवी के पशु ) पशु (ग्राम्य के पशु) पक्षी और सांप इन की आत्मीय भाषा में परिणत (तवदील) हो जाती है तथा वह अर्द्धमागधी भापा अभ्युदय करने वाली मोक्ष सुख को देने वाली और श्रानन्द को देने वाली होती है। जिस प्रकार मेघ का जल एक रसमय होने पर भी भिन्न 2 प्रकार के वृक्षों के फलों में भिन्न 2 प्रकार से परिणत हो जाता है ठीक उसी प्रकार अर्द्धमागधी भाषा के विषय में भी जानना चाहिए / इस से यह भी सिद्ध किया गया है कि-श्रीभगवान् के अतिशय के माहात्म्य से श्रार्य अनार्य पशु पक्षी आदि श्री भगवान् के सत्योपदेश से लाभ उठाते थे। तथा इस से यह भी ध्वनि निकल आती है कि-प्रत्येक प्राणी को उनकी भाषा में ही शिक्षा का प्रवन्ध करना चाहिए: जिस से वे शीघ्रता से योध पास 24 पुब्यबद्धवेरा वियणं देवासुरनागसुवरणजक्खरक्खसकिनर किंपुरिसगरुलगंधव्यमहोरगा अरहोपायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्म निसामंति। श्रीभगवान् के समीप बैठे हुए देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष ,राक्षस, किंनर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व महोरग इत्यादि देव गण पूर्ववद्ध वैर होने पर भी
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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