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________________ ( 283 ) भावार्थ-हे भगवन् ! पूर्व प्रयोग के द्वारा अकर्मक जीव की गति किस प्रकार खीकार की जाती है ? हे गौतम ! जिस प्रकार धनुष से तीर छूटकर फिर लच्याभिमुख होकर गति करता है ठीक उसी प्रकार-निसंगता से निरंगता से यावत् पूर्व प्रयोग से अकर्मक जीव की गति होती है क्योंकियावन्मात्र धनुप् वाण के चलाने वालों का बल होता है तावन्मात्र ही वह तीर लक्ष्य की ओर होकर गति की ओर प्रवृत्त हो जाता है, इसी प्रकार जब आत्मा तीनों योगों का सर्वथा निरोध कर शरीर से पृथक् होता है तब वह खाभाविक ही गति करता है, अतएव सिद्ध हुआ कि-अकर्मक जीव लोकाग्र पर्यन्त गति कर फिर वहाँ पर सादि अनंत पद वाला होकर विराजमान हो जाता है / अव यदि इस स्थान पर यह शंका हो कि-पहिले कर्म या पीछे जीव हुआ, तो इसका समाधान इस प्रकार है कि-कर्म कर्ता के अधीन होता है क्योकि-कर्ता की जो क्रिया है उसका फलरूप कर्म है / सो जब कर्ता में क्रिया ही उत्पन्न नहीं हुई तो भला कर्म कर्ता से पहिले किस प्रकार बन सकता है, अंतएव यह पक्ष किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं हो सकता कि कर्ता के पहिले कर्म उत्पन्न हो गया। यदि ऐसे कहा जाय कि-पहिले जीव मान लिया जाए फिर कर्म मान लेने चाहिये, सो यह पक्ष भी युक्ति क्षम नही है क्योकि-फिर पहिले जीव को कर्मों से सर्वथा रहित मानना पड़ेगा जब जीव सर्वथा कमाँ से रहित सिद्ध होगा तो फिर इस अात्मा को कर्म लगे ही क्यों ? यदि ऐसे माना जाय कि-विना किए ही कर्म जीव को लग गये तब यह शंका उपस्थित होती है कि-जव विना किये कर्म लग सकते हैं तो फिर जो सिद्धात्मा सर्वथा कों से रहित है उन को क्यो नही कर्म लगते / अतएव यह पक्ष भी ठीक नहीं है। यदि ऐसे माना जाय कि कर्म और श्रात्मा युगपत् समय उत्पन्न होगये तव इसमें यह शंका उत्पन्न होती है कि-जव कर्म और जीव की उत्पत्ति मानी जायेगी तव जीव और कर्म दोनों सादि सान्त हो जायेंगे तथा फिर दोनों के कारण कौन कौन से माने जायँगे ? क्योंकि-जव जीव और कर्म कार्य मानलिये गये तो फिर इन दोनों के कारण कौन 2 से हुये / अतः यह पक्ष भी स्वीकृत नहीं हो सकता / यदि ऐसे माना जाय कि-जीव कर्मों से सदैव काल ही रहित है, तो इसमें यह शंका उपस्थित होती है कि-फिर इस संसार में यह जीव जन्म मरण दुःख वा सुख क्यों उठा रहा है? क्यों कि, विना कों के उक्त कार्य नहीं हो सकते / क्यों कि यदि कर्मों के विना भी दुःख वा सुख प्राप्त हो सकता है तो फिर सिद्धात्मा भी सुख वा दुःख के भोगने वाले सिद्ध हो जायेंगे। अतएव यह मानना भी युक्ति संगत. सिद्ध नहीं होता है।
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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