SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 254 ) किन्तु जव उन शुभ कर्मों का फल उपलब्ध होता है तब आत्मा सर्व प्रकार से सुखों के अनुभव करने में तत्पर होता है / अतएव निष्कर्ष यह निकला किजिस प्रकार औषध से मिश्रित भोजन करना तो पहिले कठिन सा प्रतीत होता है परन्तु पीछे वह भोजन सुख के उत्पादन का कारण बन जाता है ठीक उसी प्रकार शुभ कर्म करने तो अति कठिन से प्रतीत होते. हैं परन्तु जव वे फल देते हैं तव जीव को परम सुखी बना देते हैं। अतएव जव आत्मा शुभ वा अशुभ कर्मों से सर्वथा विमुक्त हो जाता है तब उस को निर्वाणपद की प्राप्ति होती है / कारण कि-कर्म फल का नाम मोक्ष नहीं है, अपितु कर्म क्षय का नाम मोक्ष है / यदि कर्मफल का नाम मोक्ष मान लिया जाय तब कर्मों का फल सादि सान्त होने से मोक्ष पद सादि सान्त हो जायगा। ऐसा किसी भी कर्म का फल देखने में नहीं आता कि जिस का फल सादि अनंत हो, अतएव कर्म क्षय का नाम ही मोक्ष मानना युक्तियुक्त है। साथ ही इस बात का ध्यान होना चाहिए कि-कर्म मन से भी, वचन से भी और काय से भी किये जाते हैं। जब तीन योगों से कर्म किये जाते हैं तब स्वयं कर्म करने, औरों से कर्म कराने, जो करते हैं उनकी अनुमोदना करना, इस प्रकार तीनों करणों से भी कर्मों का बंध किया जाता है / सो जव योग और करणों का निरोध किया जायगा तब ही इस आत्मा का निर्वाण होगा। जिस प्रकार स्निग्ध तैलादि के घट पर जो रज पड़ती है वह सव रज उस घट पर जम जाती है, ठीक उसी प्रकार जव आत्मा में राग और द्वेष के भाव उत्पन्न होते हैं तब उन भावों के कारण आत्मप्रदेशो पर पुद्गलास्तिकाय के सूक्ष्म अनंत प्रदेशी स्कन्ध अाते हैं और फिर वह आत्मप्रदेशों पर जमे जाते हैं। सो उन्हीं का नाम कर्म है वे स्कन्ध स्थितियुक्त होने से कौ की स्थिति मानी जाती है। जब वे स्कंध आत्मप्रदेशों से पृथक् होने लगते हैं तव वे अपना रस आत्मा को अनुभव कराते हैं। जैसे मुख में डाली हुई मिश्री जब वह मुख में अपने स्थूल पन को छोड़ कर सूक्ष्मरूप में आती है तव ही जिह्वा उस के रस का अनुभव करने लगती है इसी प्रकार कर्मों के विषय मे भी जानना चाहिए / सो संवर द्वारा जब नूतन कर्मों का आगमन-निरोध किया गया तव तप कर्म द्वारा पुरातन कर्म क्षय किये जाते हैं जैसे कि ध्यान -चार तरह का होता है (1) आर्त (2) रौद्र (3) धर्म (4) शुक्ल / इन में पहले दो पाप बन्ध के कारण हैं। धर्म शुक्ल में जितनी वीतरागता है वह कर्मों की निर्जरा करती है व जितना शुभराग है वह पुण्य बंध का कारण है। आर्तध्यान-चार तरह का होता है। (1) इष्टवियोगज-इष्ट स्त्री, पुत्र, धनादि के वियोग पर शोक करना / (2) अनिष्टसंयोगज-अनिष्ट दुःखदायी
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy