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________________ ( 263 ) णिज्जकम्मा सरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं णाणावरणिजम्मा सरीरप्पयोगधै। ___ भगवतीसूत्रशतक के उद्देश / टीका-कम्मासरोरेत्यादि; "णाणपडिणीययाए" ति ज्ञानस्य-श्रुतादेस्तदमेदात् जानवता वा या प्रत्यनीकता-सामान्येन प्रतिकूलता सा तथा तया, "णाणनिण्हवणयाए" त्ति ज्ञानस्य-धुतगुरूणा वा या निहवता-अपलपनं सा तथा तया न्नाणतेराएणं" ति ज्ञानस्य-- श्रुतस्यान्तराय.--तद्ग्रहस्सादौ विघ्नो यः स तथा त्तेन "नाणपत्रासण"त्ति ज्ञाने--श्रुतादौ ज्ञानवत्सु वा य प्रदेष.--अप्रीति म तथा तेन 'नाणचा सायणाए' त्ति--ज्ञानस्य ज्ञानिना वा याऽत्याशातना-हेलना सा तथा : नाणविसंवायणाजोगणं" ति ज्ञानस्य ज्ञानिना वा विसंवादनयोगोव्यभिचारदर्शनाय व्यापारी य स तथा तेन एतानि च बाह्यानि कारणानि ज्ञानावरणीय कार्मण शरीरवन्धे अथाऽनन्तरं कारणमाह--'णाणावरणिज' मित्यादि ज्ञानावरणीय हेतुत्वेन ज्ञानावरणीयलक्षणं यत्कार्मणशरीरप्रयोग नाम तत्तथा तस्य कर्मण उदयनति" . भावार्थ-श्री गौतम स्वामी श्रीश्रमण भगवान्.महावीर प्रभु.से यूछले है कि हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कार्मण शरीरप्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान प्रतिपादन करते है कि हे गौतम ! छः कारणो से आत्मा शानावरणीय कर्म को बांधते है और ज्ञानावरगीय कार्मण शरीरप्रयोग नाम कर्म के उदय से ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग का वंध कथन किया गया है। किन्तु जो ज्ञानावरणीय कर्म का वंध छ: प्रकार से प्रतिपादन किया गया है वह निम्न प्रकार से जानना चाहिए जैसेकि 1 ज्ञान और ज्ञानवान् आत्मा की प्रतिकूलता करने से। 2 श्रुतज्ञान वा श्रुतगुरु उन का नाम छिपाने से अर्थात् ज्ञान को छिपाना और मन में यह भाव रखना कि-यदि अमुक व्यक्ति को श्रुत ज्ञान सिखला दिया तव उस का महत्व बढ़ जाएगा तथा जिस से मैं पढ़ा हूँ उसका नाम बतला दिया तो मेरी अपेक्षा से उस की कीर्ति बढ़ जाएगी वा अन्य व्यक्ति जाकर उस से पढ़ लेंगे इत्यादि कुविचारों से ज्ञान को वा श्रुत गुरु के नाम को छिपाते. रहना / 3 श्रुतज्ञान के पढ़ने वालों को सदैव काल विघ्न करते रहना जिससे कि वे पढ़ न सके। मन में इस बात का विचार करते रहना कि-यदि ये पढ़ गए तो मेरी कीर्ति न्यून हो जायगी। __, 4 ज्ञान वा ज्ञानवालों से द्वेष करना अर्थात् जो मूढ़ हैं उन से प्रेम और जो ज्ञानवान हैं उन के साथ द्वेष / इस प्रकार के भावों से जानावरणीय कर्म का बंध किया जाता है / ..
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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