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________________ ( 254 ) 4 पापतत्त्व-जिस कारण जीव नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करने लगता है और संसार में सब प्रकार से दुःख भोगता रहता है वह सव पाप कर्म का ही प्रभाव है / पापकर्म का मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि-जिस के कारण प्रिय वस्तुओं का वियोग होता रहे और अप्रिय वस्तुओं का संयोग मिलता रहे। पापकर्मों का संचय जीव 18 प्रकार से करते हैं जैसेकिप्राणातिपात-जीवहिंसा से।१। मृषावाद-असत्य के बोलने से। 2 / अदत्तादान-चोरी करने से / 3 / मैथुन-मैथुन कर्म से।४। परिग्रह-पदार्थों पर ममत्व भाव करने से / 5! शोध-क्रोध करने से / 6 / मान-अहंकार करने से।७। माया-कपट (छल) करने से / / लोभ-लोभ करने से / / राग-सांसारिक पदार्थों पर राग करने से। 10 // द्वेष-पदार्थों पर द्वेष करने से / 11 / कलह-क्लेश करने से / 12 / अभ्याख्यान-किसी का असत्य कलंक देने से / 13 / पैशुन्य-चुगली करने से / 14 / परपरिवाद-दूसरों की निन्दा करने से / 15 / रति-विषयादि पर रति करने से / 16 / अरति-विषयादि के न मिलने पर चिंता करने से / 17 / मायामिथ्यादर्शन शल्य--असत्य निश्चय करने से अर्थात् पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ न जानना उसी का नाम मिथ्यादर्शन शल्य है / 18 / जिस प्रकार किसी के शरीर के भीतर शल्य (कंटक) आदि प्रविष्ट हो जाय, तव उस व्यक्ति को किसी प्रकार से भी शांति उपलब्ध नहीं हो सकती, ठीक उसी प्रकार जिस आत्मा के भीतर असत्य श्रद्धान होता है फिर उस आत्मा को शांति की प्राप्ति किस प्रकार हो सके? अतएव उक्त 28 कारणों से जीव पाप कर्मों की प्रकतियों का संचय करता है। फिर जव चे प्रकृतियां उदय भाव में आती हैं तब वे नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव कराती है / सो इसी का नाम पापतत्त्व है। 5 आश्रवतत्त्व-जिस कारण आत्म-प्रदेशों पर कर्मों की प्रकृतियों का उपचय होजावे उसे आश्रत्र तत्त्व कहते हैं / यद्यपि इस के अनेक कारण प्रति
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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