SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 236 ) गुण पर्याय सदैव काल विद्यमान रहता है / जैसेकि-धर्म द्रव्य में स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल और स्वभाव विद्यमान तो रहता है, किन्तु शेष पांच द्रव्यों का गुण पर्याय उस में नहीं रह सकता। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य में स्वद्रव्यादि चारों भाव विद्यमान रहते हैं, किन्तु शेष पांच द्रव्यों के गुण पर्याय नहीं रह सकते / जिस प्रकार इन का वर्णन किया गया है ठीक उसी प्रकार आकाश द्रव्य में द्रव्यादि भाव रहते हैं। किन्तु शेष पांच द्रव्यों के गुण पर्याय नही रहते काल के भाव काल में रहते हैं पुद्गल के भाव पुद्गल में रहते है। जीव के स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल और स्वभाव जीव में रहते हैं शेष पांच द्रव्यों के स्वभाव जीव द्रव्य में नहीं रह सकते / इसी प्रकार षद् द्रव्य स्वगुण की अपेक्षा से सत् रूप प्रतिपादन किये गए हैं। अव वक्तव्य और श्रवक्तव्य पक्ष कहते हैं। षद् द्रव्य में अनंत गुण पर्याय वक्तव्य है अर्थात् वचन से कहा जास. कता है और अनंत हीगुण पर्याय अवक्तव्य रूप है / जोवचन द्वारा नहीं कहा जासकता, किन्तु श्री केवली भगवान् ने सर्व भाव देखे हुए हैं, परन्तु दृष्ट भावों से भी वे अनंत भाग मात्र कह सकते हैं। इसी लिये, वक्तव्यत्व और अवक्तव्यत्व ये दोनों भाव षद् द्रव्य में पड़ते हैं / किन्तु जव नित्य और अनित्य पक्ष माना जाता है तब इस पक्ष के मान ने से चतुर्भग उत्पन्न होजाते हैं। जैसेकि 1 अनादि अनंत—जिस की न तो आदि है नाँही अंत है। 2 अनादि सान्त-आदि तो नहीं है किन्तु अन्त दीखता है। (मानाजा सकता है) 3 सादि अनंत-जिसकी आदि तो मानी जाती है परन्तु अन्त नही माना जासकता / 4 सादिसान्त-जिस की आदि अन्त दोनों माने जा सकें, उसी का नाम सादि है। परन्तु ये चारों भंग उदाहरणों द्वारा इस प्रकार प्रतिपादन किये गए हैं जैसेकि जीव में ज्ञानादि गुण अनादि अनंत है 1, भव्य आत्माओं के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि सान्त है 2, जिस समय जीव कर्म क्षय करके मोक्षपद प्राप्त करता है, तब उसमें सााद अंनत भंग माना जाता है / क्योंकि-कर्मक्षय करने के समय की प्रादिताहोगई, परन्तुमुक्ति पुनरावृति वाली नहीं है / अतएव सादि अनंत भंग सिद्ध होगया। चारों गतियों में जो जीव पुनः 2 जन्म मरण कर रहा है, उस की अपेक्षा संसारी जीवों में सादिसान्त भंग सिद्ध हो जाता है जैसेकि-मनुष्य मरकर देवयोनि में चलागया तब देवयोनि की अपेन्तामनुष्य भाव सादिसान्त पद वाला वनगया इसीप्रकार प्रत्येकद्रव्य के विषय जानना चाहिए।
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy