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________________ "इम कम्मं अयं जीवे” त्ति अनेन द्वयोरपि प्रत्यक्षतामाह केवलित्वादर्हत , "अज्मोवगमियाए त्ति 'प्राकृतत्वादभ्युपगमः-प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुञ्चनादीनामङ्गीकारस्तेन निवृता आभ्युपगमिकीतया "धेयइस्सइ" त्ति भविष्यत्कालनिर्देशः भविष्यत् पदार्थो विशिष्टज्ञानवतामेव ज्ञेयः अतीतो वर्तमानश्च पुनरनुभवद्वारेणान्यस्यापि शेयः संभवतीति ज्ञापनार्थः "उचक्कमियाए” त्ति उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः-कर्मवेदनोपायस्तत्रभवा औपक्रमिकी-स्वयमुदोर्णस्योदोरणाकरणन बोदयमुपनीतस्य कर्मणोऽनुभवस्तया औपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति, नथाच 'अहा कम्म' ति यथाकर्म-बद्धमानतिक्रमेण 'अहा निगरण ति निकरणानां-नियतानां देशकालादीनां करणानांविपरिणामहेतूनामनतिक्रमेण यथायथा तत्कर्म भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिगस्यतीति, इति शब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति // इस पाठ का यह साराँश है कि-श्रीभगवान् अपने ज्ञान में यह भली प्रकार से जानते और देखते हैं कि यह जीव वाहिर के निमित्तो द्वारा कर्म वेदेगा और यह जीव स्वयं उदय होने योग्य कर्मों की उदीरणा करने से कर्मों का अनुभव करेगा कारण कि-कर्म दो प्रकार से वर्णन किये गए हैं जैसे कि-एक तो प्रदेश कर्म और द्वितीय अनुभाग कर्म सो जो प्रदेश कर्म होते हैं वे अात्म प्रदेशों के साथ क्षीर नीरवत् ओत प्रोतरूप होकर एक रूप से रहते हैं वह तो अवश्यमेव भोगने में आते हैं किन्तु जो अनुभाग कर्म है वे अनुभव करने में आ भी सकते हैं नही भी आसकते जैसे-मिथ्यात्व के क्षयोपशमकाल मे अनुभाग कर्म से फल नहीं अनुभव किया जाता अपितु प्रदेश कर्म अवश्यमेव भोगने में आते है सो जिस प्रकार आत्म प्रदेशों द्वारा कर्मों का बंध हो चुका है फिर जिस देश कालादि में उन कर्मों के रस का अनुभव करना है वा जिस प्रकार से जिस निमित्त से कर्मों के फल भोगने हैं सो जिस प्रकार अहन भगवान् . ने अपने ज्ञान में देखा है वह उसी प्रकार परिणत होवेगा अर्थात् तीनों काल के भाव जिस प्रकार ज्ञान में देखे गए हैं वे भाव उसी प्रकार होते रहेंगे क्योंकिकेवल ज्ञान विशद ज्ञान होता है सो इस सूत्र पाठ से सर्वज्ञ प्रभु को त्रिकालदी युक्तिपूर्वक सिद्ध किया गया है। अतएव त्रिकालदर्शी शब्द किसी अमुक पदार्थ की अपेक्षा से ही कथन किया गया है जैसे यह अमुक जीव अमुक देश काल में अमुक कौ के फल का अनुभव करेगा किन्तु श्री भगवान् का केवलज्ञान तीनों काल मे एक रसमय रहता है / यदि ऐसे कहा जाए किज्ञानात्मा रूप सर्वज्ञ प्रभु जव तीनों काल के भावो को हस्तामलकवत् अवलोकन करते हैं तो फिर जीव की स्वतंत्रता जाती रही और पुरुषार्थ करना भी व्यर्थ ही सिद्ध होगा क्योंकि-जो भिगवान् ने ज्ञान मे देखा हुआ है
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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