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________________ चे सर्व श्रीभगवान् के ज्ञान से वाहिर नहीं अपितु वे तीनों काल के पर्यायों को हस्तामलकवत् जानते और देखते है। ____ यदि ऐसे कहा जाए कि-"सर्वज्ञ" शब्द तोमानना युक्तिसंगत सिद्ध होता है किन्तु त्रिकालवेत्ता मानना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि-त्रिकालवेत्ता मानने में दो आपत्तियां उपस्थित होजाती हैं ! जैसे कि-एक तो यह है कि-जय कोई वस्तु उत्पन्न ही नहीं हुई तो भला फिर उसका देखना वा जानना किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? द्वितीय जव सर्वज्ञ ही मान लिया तव फिर उस को त्रिकालवेत्ता मानना परस्पर विरोध रखता है क्योंकि सर्वश को एक रसमय का ज्ञान होता है वह ज्ञान परिवर्तनशील नहीं होता किन्तु त्रिकालवेत्ता का ज्ञान परिवर्तनशील मानना पड़ेगा जैसे-पदार्थ परिवर्तनशील हैं और वे क्षण 2 में नूतन वा पुरातन पर्यायों के धारण करने वाले है सो जव पदार्थो की इस प्रकार की स्थिति है तब ज्ञान भी उसी प्रकार का मानना पड़ेगा क्योंकि-ज्ञान पदार्थों का ही होता है अतएव सर्वन के साथ त्रिकालवेत्ता शब्द का विशेषण लगाना युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता है। ____ इस शंका का समाधान इस प्रकार से किया जाता है कि जैसे "नीलोत्पल" शब्द में 'नील शब्द 'उत्पल' शब्द का विशेषण माना जाता है तथा "सम्यग्ज्ञान" शब्दमें नान शब्दका सम्यग् शब्द विशेपण माना गया है ठीक तद्वत् सर्वज्ञ शब्द का त्रिकालवेत्ता शब्द विशेपण रूप है इस लिये इसमें कोई भी अापत्ति उपस्थित नहीं होती है क्योंकि-सर्वन प्रभु का ज्ञान तो सर्व काल में एक ही रसमय होता है किन्तु जिस व्यक्ति की अपेक्षा से वह शान में उस व्यक्ति की दशा को जानते और देखते है उसकी अपेक्षा से ही उन्हें निकालदर्शी कहा जाता है जैसे कि-व्याकरण शास्त्र में कालद्रव्य एक होने पर भी उस के दशों लकारों द्वारा भूत भविष्यत् और वर्तमान रूप तीन विभाग किये गए हैं। इस में कोई भी संदेह नहीं है कि-जो व्यक्ति जिस समय जिस देश में विद्यमान होता है उसका नो वह वर्तमान काल ही होता है परन्तु उस व्यक्ति को भूत काल में होनेवाले जीव भविष्यत् काल में रखते हैं और भविष्यत् काल में होने वाले जीव उस को भूत काल में रखेंगे। परंच काल द्रव्य तीनों विभागों में एक रसमय होता है सो जिस प्रकार काल द्रव्य एक होने पर व्यक्तियों की अपेक्षा तीन विभागों में किया गया है ठीक उसी प्रकार सर्वज्ञ प्रभु के मानविषय में भी जानना चाहिए अर्थात् ज्ञान में किसी प्रकार से भी विसंवाद नहीं हो सकता किन्तु जिस प्रकार वह ज्ञान में पदार्थों के स्वरूप को देखते है चे पदार्थ उसी प्रकार होते रहते हैं। जो यह शंका उत्पादन की गई थी कि-जो वस्तु अभी तक हुई नहीं।
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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