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________________ ( 204 ) नहीं रख सकता। दूसरा तो इसे रख सकता है सो उस के नाम का रहा ये कुतर्क हैं / अतएव इस प्रकार नहीं करना चाहिए / परिमाण करते समय अपने निर्वाह का ध्यान रखना चाहिए ताकि पश्चात् ब्रत भग्न न हो जाए / 4 द्विपद चतुष्पद परिमाणातिक्रम-यावन्मात्र दास दासी तथा पशु आदि का परिमाण किया गया हो उसको अतिक्रम न करना चाहिए / यदि परिमाण अतिक्रम किया जायगा तब उक्त व्रत मलिन होजायगा अतएव परिमाण अतिक्रम न करना चाहिए। 5 कुपदपरिमाणातिक्रम-घर का यावन्मात्र उपकरण है जैसे-थाली, कचोल, कटोरा आदि उसका परिमाण करना चाहिए / परन्तु जितना परिमाण किया गया हो उस परिमाण को अतिक्रम न करना चाहिए / इस प्रकार पंचम अणुव्रत को शुद्धतापूर्वक पालन करना चाहिए। श्री भगवान् ने गृहस्थों के लिये पांच अणुव्रतों की रक्षा के वास्ते तीन गुणव्रत प्रतिपादन किये हैं। क्योंकि इन गुणवतों द्वारा पांच अणुव्रतों की भली प्रकार से रक्षा की जासकती है जैसेकि दिगवत के द्वारा बाहिर के क्षेत्र के जीवों को अभयदान देने से प्रथम अणुव्रत को लाभ पहुंचता है। परिमाण से वाहिर जाना बंद होने से उस क्षेत्र में असत्य बोलने का भली प्रकार नियम पल जाता है जिससे द्वितीय अणुव्रत को लाभ पहुंचता है, क्षेत्र के परिमाण से वाहिर क्षेत्र में चोरी आदि का भी भली प्रकार नियम पल जाने से तृतीय अणुव्रत को लाभ होजाता है ।मैथुन का परित्याग होने से चतुर्थ अणुव्रत को लाभ होता है। इसी प्रकार वाहिर के क्षेत्र में क्रय विक्रय न होने से पंचम अणुव्रत को लाभ पहुंचता है / सो इन गुणवतोद्वारा पांचों ही अणुव्रतों को लाभ पहुंच जाता है। इसलिये इनको गुणवत कहते हैं। दिग्नत-इस व्रत को कथन करने का यह तात्पर्य है कि असंख्यात योजन परिमाण का लोक है। उसमें जीव दो प्रकार से गति करते हैं एक द्रव्य से और दूसरे भाव से / सो गमन क्रिया द्रव्य से काय द्वारा होसकती है और भाव से कर्मों द्वारा / इसीक्रम को द्रव्य और निश्चयदिग्वत भी कहते हैं / सो श्रावक को उक्त प्रत दो प्रकार से धारण करना चाहिए। जैसेकि-निश्चय से वे कर्म न करने चाहिएं जिन से संसार चक्र में परिभ्रमण करना पड़े। व्यवहार से काय द्वारा दश दिशाओं (पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर ऊंची और नीची यह छै दिशा और चार विदिशा) में जाने का परिमाण होना चाहिए और यावन्मात्र परिमाण किया हो उसको अतिक्रम न करना चाहिए। इसी लिये इस गुणव्रत के भी पांच ही अतिचार वर्णन किये गए हैं / जैसोक तयाणंतरं चणं दिसिवयस्स पञ्च अइयारा जाणियच्चा न समायरिय
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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