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________________ ( 202 ) तो उस सम्बन्ध को तुड़वा कर अपने साथ वह सम्बन्ध जोड़ना भी एक प्रकार का अतिचाररूप दोष है क्योंकि वह एक प्रकार से परस्त्री ही है। - 5 कामभोगतीवाभिलाषा-काम भोग सेवन की तीव्र अभिलाषा रखना / “कामभोग" से शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पांचों का बोध माना है तथा विषय की वृद्धि के लिये नाना प्रकार की औषधियों का सेवन करना, धातु आदि बलिष्ट पदार्थों का सेवन करना, सदैव काल श्रुति का विषय सेवन की ओर लगा रहना, इत्यादि क्रियाओं से उक्त व्रत मलिन हो जाता है। अतएव उक्त पांचों अतिचाररूप दोषों को छोड़ कर उक्त व्रत शुद्धतापूर्वक पालन करना चाहिए जिससे मनोकामना की शीघ्र सिद्धि होजावे। जब गृहस्थ चतुर्थ स्वदारा संतोष व्रत को धारण करले फिर उसको पंचम अणुव्रत धारण कर लेना चाहिए जैसेकि-- इच्छापरिमाणे ठाणागसूत्र स्थान 5 उद्देश 1 // इस अणुव्रत का अपर नाम इच्छापरिमाणवत भी है। क्योंकि-आत्मा की अनंत इच्छाएं हैं / सो वह आत्मा इच्छा के वशीभूत होता हुआ ही दुःखों का अनुभव करता रहता है / यावत्काल यह संतोषव्रत को धारण नहीं करता तावत्काल पर्यन्त इसको सुखों की प्राप्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि-शास्त्रकार मानते हैं कि-संसार में परिग्रह के समान कोई भी वंधन नहीं है / जीव . जब इसके वशीभूत हो जाते हैं तब धर्म कर्म वा सांसारिक सम्बन्ध सब छूट जाते हैं। - इतना ही नहीं किन्तु इसके लिये जिनसे अति प्रेम (राग) होता है उनके साथ संग्राम करना पड़ता है, बध और वंधन का यह मुख्य कारणीभूत है। चतुर्गति रूप संसार चक्र में इसके कारण से जीव भटकते फिरते हैं यावन्मात्र संसार में अकृत्य कार्य हैं अविवेकी आत्मा इसके लिये प्रायः सव कर बैठते हैं / अतएव शास्त्रकार प्रतिपादन करते हैं कि इच्छा का परिमाण अवश्य होना चाहिए। __यद्यपिशास्त्रों में परिग्रह के अनेक भेद प्रतिपादन किये गए हैं तथापि मुख्य दो ही भेद होते हैं जैसेकि-द्रव्य परिग्रह और भाव परिग्रह / द्रव्य परिग्रह धन धान्यादि होता है और भाव परिग्रह अन्तरंग मोहनीय कर्म की प्रकृति रूप है। सो जब मोहनीय कर्म की प्रकृतियां क्षयोपशम भाव में होजाएँ तव द्रव्य परिग्रह का परिमाण सुखपूर्वक किया जा सकता है, अतः गृहस्थ अपने निर्वाह का ठीक अन्वेषण करता हुआ पंचम स्थूल परिग्रह अणुव्रत का परिमाण करले / क्योंकि इच्छा का जब परिमाण होजाएगा तव उस आत्मा को संतोषरूपी
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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