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________________ (200) में चरबी तथा अफीम में धतुरादि का प्रयोग करना / इस अतिचार का यह मन्तव्य है कि लालच के वश होते हुए शुद्ध वस्तुओं में अशुद्ध वस्तुओं का प्रयोग कर देना / सो ये पांचों अतिचार (दोष) तृतीय अणुव्रत के हैं। जो गृहस्थ उक्त व्रत के पालन करने वाला है, उसको योग्य है कि अपने उपयोग के द्वारा उक्त दोषों के दूर करने का उपाय करता रहे / कारण कि जब तक किसी वस्तु पर ध्यान पूर्वक विचार नहीं किया जायगा तब तक उसके पालन करने से असुविधा बनी रहेगी। अतएव जब उस पर ठीक ध्यान दिया जायगा तब वह नियम ठीक पल जायगा / जव श्रावक तृतीय अणुव्रत को ठीक प्रकार से समझले फिर चतुर्थ अणुव्रत के जानने की ओर चित्त को आकर्षित करे / जैसेकि। स्वदारासंतोष ठाणांगसूत्रस्थान 5 उद्देश // 1 // भावार्थ-श्रावक अपने चतुर्थ अणुव्रत में परस्त्री आदि का त्याग करके केवल स्वदारसंतोष व्रत पर ही अवलम्बित रहे तथा देवी और तिर्यश्चणी के संग का सर्वथा परित्याग कर दे / कारण कि ब्रह्मचर्य व्रत दोनों लोकों में कल्याण करने वाला है और शारीरिक बल के प्रदान करने वाला भी है / अतएव अपने चंचल मन को वश करके इस व्रत को शुद्धता पूर्वक पालन करना चाहिए / स्मृति रहे कि गृहस्थ लोग इस व्रत का पालन एक करण और एक योग से ही कर सकते हैं, जैसेकि-"कलं नहीं कायसा" अर्थात् परस्त्री आदि का संग काय द्वारा नहीं करूंगा। क्योंकि मोहनीय कर्म के उपशम करने के लिए और व्यभिचार रोकने के लिये ही विवाह संस्कार की प्रथा चली आती है। सो उक्त कार्य में संतोष धारण करना ही सर्वोत्तम कर्तव्य है / परन्तु स्वदारा के साथ भी मैथुन कीडा दिन में न करनी चाहिए / नाहीधर्म तिथियों में उक्त क्रियाएँ करनी चाहिएं तथा परस्त्रियों के साथ उपहास्यादि क्रियाए न करनी चाहिएं / साथ ही इस अणुव्रत के जो पांच अतिचार रूप दोप हैं उन्हें त्यागना चाहिए / जैसेकि तयाणंतरं चणं सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्या तंजहा-इत्तरिय परिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा परविवाहकरणे कामभोगातिव्चाभिलासे / / उपासकदशाङ्गसूत्र अ० // 1 // भावार्थ-स्वदायसंतोपरूप चतुर्थ अणुव्रत के पांच अतिचार रूप दोष प्रतिपादन किये हैं। जैसेकि
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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