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________________ ( 163 ) दो इंद्रियों वाले जिनके केवल शरीर और मुख ही होता है यथा शंख, जोंक, गंडोयादि / त्रीन्द्रिय जीव, जैसे-जू लीख, कीड़ी आदि / चतुरिन्द्रिय जीव जैसे-मक्खी, मशक (मच्छर )श्रादि / पञ्चेन्द्रिय जीव जैसे-नारकीय 1 तिर्यग् 2 मनुष्य और देवता; इन के स्पर्श, जिह्वा, घ्राण,चक्षु और श्रोत्र ये पांचों इन्द्रियां होती हैं। इन सब जीवों को जानकर और देख कर जो जीव निरपराध हैं उनके मारने का अवश्य त्याग होना चाहिए, किन्तु जो सापराध हैं उनके सम्बन्ध में कोई त्याग नहीं है / जैसेकि कोई दुष्ट किसी श्रावक की स्त्री से व्यभिचार करने की चेष्टा करता है अथवा उसका धन लूटने के ध्यान में लगा हुआ है या मारने के लिए कई प्रकार के उपाय सोच रहा है तो क्या वह श्रावक अपनी रक्षा के लिए उपाय न करे ? अर्थात् अवश्य करे, क्योंकि यदि मौन धारण किया जाएगा तो संसार में व्यभिचार विशेष विस्तृत हो जाएगा। अतएव गृहस्थ को निरपराध जीवों का ही त्यागहो सकता है न कि सापराध काभी / यदि जैन धर्म के पालन करने वाला कोई राजा श्रावक के 12 व्रतधारण कर ले तो क्या वह अपराधियों को दंडित नहीं करेगा ? अवश्य करेगा। इस कथन से यह भली भांति सिद्ध हो रहा है कि-जैन-धर्म न्याय की पूर्ण शिक्षा देता है / उसका मन्तव्य है कि-निरपराधी जीवों को हास्य, लोभ, धर्म, अर्थ, काम, मूढ़ता, दर्प, क्रोध, मोह, अज्ञानता इत्यादि कारणों से न माराजाए और जोसापराध हैं उनको उनके कर्मानुसार शिक्षित किया जाय यह गृहस्थ का न्याय धर्म है / गृहस्थ को इस प्रकार का नियम नहीं हो सकता है कि वह अपराधी को भी शिक्षित न करे / यदि कोई कहे कि-जव घर के सब काम काज करने पड़ते हैं तथा दुकान पर अनेक प्रकार के पदार्थों का क्रय विक्रय होता है तो क्या उस समय कोई निरपराधी जीव नहीं मारा जाता ? जव उनका मरना सिद्ध है तो फिर 'निरपराधी जीव को नहीं मारना' यह नियम किस प्रकार पल सकता है ? इस शंका का उत्तर यह है कि-वादी ने जो उक्त प्रश्न किया है वह अक्षर 2 सत्य है किन्तु जिस आत्मा ने अहिंसावत धारण कर लिया है उसको प्रत्येक कार्य करते समय यत्न होना चाहिए / तात्पर्य यह है कि वह विना देखे कोई भी कार्य न करे। घर के वा दुकान के यावन्मात्र कार्य है वह विना देखे न करने चाहिएं और नांही खाने योग्य पदार्थ विना देखे खाने चाहिएं एवं यावन्मान गृह सम्बन्धी कार्य हैं उनको विना यत्न कमीन करना चाहिए / यदि फिर भी जीव-हिंसाहोजाय तो श्रावक के त्याग में दोष नहीं है। क्योंकि उसने पहिले ही इस बात की प्रतिज्ञा करली है कि-जान कर देख कर वामारने कासंकल्प कर निरपराधी जीव को नहीं मारूंगा। शास्त्र में लिखा है जैसेकि
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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