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________________ ( 185 ) विशेपधर्म में आनन्दपूर्वक आरोहण होसकता है। जिस प्रकार संतान का उत्पन्न करना ही धर्म नहीं है, परन्तु उसे विद्वान् और सदाचारी वनाना भी मुख्य प्रयोजन है, ठीक उसी प्रकार सामान्यधर्म से फिर विशेषधर्म में प्रविष्ट होना गृहस्थ का मुख्य प्रयोजन है। सामान्यधर्म का फल प्रायः इस लोक में ही उपलब्ध होजाता है / जैसेकि जो गृहस्थ सामान्यधर्म को पालन करने वाले हैं, उनका आसन सदाचारियों की पंक्ति में आजाता है, सभ्य पुरुष उनको ऊंची दृष्टि से देखते हैं, नाना प्रकार की पवित्र सम्मतियो के समय उनका नाम लिया जाता है और संसार पक्ष में उन्हें योग्य पुरुष कहा जाता है / परन्तु जो विशेषधर्म है उसका परिणाम इस लोक और परलोक दोनों में सुखप्रद होजाता है / जैसेकि इस लोक में वह पुरुप तो माननीय होता ही है, परन्तु परलोक में स्वर्ग मोक्ष के सुखों के अनुभव करने वाला होता है / क्योंकि जब विशेपधर्म के आश्रित होगया तव उसका श्रात्मा पौद्गलिक सुख से निवृत्त होकर आत्मिक सुख की ओर मुकने लगता है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश के सन्मुख कदापि समानता धारण नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार पौगलिक सुख अात्मिक सुखों के सामने तुलना नहीं रखते / जिस प्रकार सूर्य के सन्मुख दीपक निस्तेज होजाता है. उसी प्रकार पौद्गलिक सुख आत्मिक सुखों के सामने नाम मात्र होते हैं। अतएव आत्मिक सुखों के उत्पादन के लिये विशेष धर्म की प्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है / जब सुवर्ण को शुद्ध करना चाहते हो, तब सामान्य अग्नि से कार्य-सिद्धि नहीं हो सकेगी। अपितु विशेष और प्रचण्ड अग्नि से कार्य-सिद्धि होगी। इसी प्रकार श्रात्मशुद्धि के लिये विशेष क्रियाकलाप की आवश्यकता होती है / जव विशेप क्रियाओं से प्रात्म-शुद्धि हो जाती है तव आत्मा कर्मबंधन से विमुक्त हो कर निर्वाण पद की प्राप्ति कर लेता है, जिसके सिद्ध, वुद्ध, अजर, अमर, ईश्वर परमात्मा, पारंगत, अनन्तशक्ति,इत्यादि अनेक शुभ नाम प्रसिद्ध होरहे हैं। अतएव सामान्यधर्म को ठीक पालन करते हुए फिर विशेषधर्म की ओर मुक जाना चाहिए / ताकि आत्मा सादि अनन्त पद को प्राप्त हो सके और अन्य आत्माएं भी उस पवित्र आत्मा का अनुकरण करके उक्त पद पर आरूढ़ हो। इति श्रीजनतत्त्वकलिकाविकामे सामान्यगृहस्थवर्मस्वरूपवर्णनात्मिका चतुर्थी कलिका समाप्ता /
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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