SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 171 ) तो विद्वान् और अनुभवी पुरुषों के पास पहुंच कर सूत्र के अर्थों का श्रवण करे। क्योंकि जिन आत्माओंने अक्षरज्ञान संपादन नहीं किया है, वे श्रत के अर्थश्रवण से अपना वा पर का कल्याण कर सकते हैं। तथा च पाठः-- दुविहे धम्मे पं०तं-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव, सुयधम्मे दुविहे पं०तं सुत्तसुयम्धमे चेव अत्थसुयधम्मे चेव // ठाणागसूत्र स्थान 2 उद्देश्य 1 // वृत्ति-दुर्गतो प्रपततो जीवान् रुणद्धि सुगतौ च तान् धारयतीति धर्मः, श्रुतं द्वादशांगं तदेव धर्मः श्रतधर्मः ! चर्यते आसेव्यते यत् तेन वा चर्यतेगम्यते मोक्ष इति चारित्रं-मूलोत्तरगुणकलापस्तदेव धर्मश्चारित्रधर्म इति / 'सुयधम्मे' इत्यादि सूज्यन्ते सूच्यन्तेवाऽर्था अनेनति सूत्रम्. सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सुष्टूक्तत्वाद्वा सून, सुप्तमिव वा सुप्तम्, अव्याख्यानेनाप्रबुद्धावस्थत्वादिति, भाष्यवचनं त्वेवं 'सिञ्चति खरइ जमत्थं तम्हासुत्तं निरुत्तविहिणा वा। सूएइ सवति सुब्बइ सिवइ सरए वजणऽत्थं // १॥अविवरियं सुत्तविव सुट्टिय वा वित्तो सुवुत्तं त्ति // अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्यते वा याच्यते चुभुत्सुभिरित्यर्थीव्याख्यानमिति, श्राह च-जो सुत्ताभिप्पाश्रो सो अत्थो अजए य जम्हत्ति' // भावार्थ-श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने धर्म दो प्रकार से प्रतिपादन किया है, जैसेकि-श्रतधर्म और चारित्रधर्म फिर श्रतधर्म भी दो प्रकार से वर्णन किया है, जैसेकि सूत्रश्रतधर्म और अर्थश्रतधर्म / दुर्गति मे पड़ते हुए प्राणी को जो उठाकर सुगति की ओर खींचता है, उसी का नाम धर्म है और द्वादशाङ्ग रूप श्रत का जो पठन पाठन करना वा कराना है उसे श्रतधर्म कहते हैं तथा जिस के आसवन वा जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जाए उसे चारित्र धर्म कहते हैं वही मूलोत्तरगुणक्रियाकलापरूप धर्म भी है। . सूच शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती / जैसे सूत्र में माला के मणके परोये हुए होते हैं, उसी प्रकार जिस में अनेक प्रकार के अर्थ ओतप्रोत होते हैं, उसे सूत्र कहते हैं तथा जिस के द्वारा अर्थों की सूचना की जाती है वह सूत्र है। जो भली प्रकार कहा हुआ है, उस का नाम सूक्त है, प्राकृत भापा में सूक्त शब्द का रूप भी 'सुत्त' ही बनता है। जिस प्रकार सोया हुआ पुरुप वार्तालाप करने पर विना जागृत हुए उस वार्ता के भाव से अपरिचित रहता है ठीक उसी प्रकार विना व्याख्या पढ़े जिस का बोध न होसके उसे सूत्र कहते 1 पततो रक्षति सुगतौ च धत्ते इति 2 सिञ्चति क्षरति यस्मादयं तस्मात् सूत्रं निरुतविधिना वा सूचयति श्रवति श्रूयते सिच्यते स्मयते वा येनार्थ. // 1 // अविवृतं सुप्तमिव मुस्थितव्यापित्वात् सूक्तमिति // 3 यः सूत्राभिप्रायः सोऽर्थोऽयते च यस्मादिति /
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy