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________________ ( 167 ) से उपमा देकर अलंकृत किया गया है, जैसे कि तव संजम मयलंछण अकिरियराहुमुहदुद्धरिसनिच्चं / जय संघचन्द ! निम्मल सम्मत्त विसुद्ध जोएहागा / वृत्ति-तपश्च संयमश्च तपःसंयम समाहारो द्वन्द्वः तपःसंयममेव मृगलाञ्छनं-मृगरूपं चिह्नं यस्य तस्यामंत्रणं, हे तपासंयममृगलाञ्छन ! तथा न विद्यतेऽनभ्युपगमात् परलोकविषया क्रिया येषां ते अक्रिया-नास्तिकाः त एव जिनप्रवचनशशाङ्कनसनपरायणत्वाद्राहुः तस्य मुखमिवाक्रियराहुमुखं तेन दुष्प्रधृष्यः-अनभिभवनीयः तस्यामंत्रणं हे प्रक्रियराहुमुखदुषधृष्य! संघश्चन्द्र इव सङ्घचन्द्रः तस्यामंत्रणं हे सङ्घचन्द्र ! तथा निर्मल-मिथ्यात्वमलरहितं यत्सम्यक्त्वं तदेव विशुद्धा ज्योत्स्ना यस्य स तथा "शेषाद्धे" ति कः प्रत्ययः, तस्या मंत्रण हे निर्मलसम्यक्त्वविशुद्धज्योत्स्नाक ! दीर्घत्वं प्रागिवप्राकृतलक्षणादवसेयम्, “निच्च" "नित्यं" सर्वकालं "जय" सकलपरदर्शनतारकेभ्योऽतिशयवान् भव, यद्यपि भगवान् सङ्घचन्द्रः सदैव जयन् वर्तते तथाऽपीत्थं स्तोतुरभिधानं कुशलमनोवाक्कायप्रवृत्तिकारणमित्यदुष्टम् // पुनरपि सङ्घस्यैव प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण स्तवमाह भावार्थ-हे तपःसंयम मृगलाञ्छन वाले ! हे अक्रियराहुमुखदुष्पधृष्य ! हे संघचन्द्र !हे निर्मल विशुद्ध ज्योत्स्ना केधारण करने वाले! तेरीसर्वदाजय हो। इस गाथा का सारांश इतना ही है कि-स्तुतिकार ने श्रीसंघ को चन्द्र की उपमा से संबोधित कियाहै ।जैसेकि हे संघचन्द्र ! जिस प्रकार चन्द्र को मृग का लाञ्छन होता है, ठीक उसी प्रकार श्रीसंघ रूपी चन्द्र को तपःसंयम रूपी मृग लाञ्छन है। इसी लिये इस का यह आमंत्रण किया गया है कि-हे तपः संयम रूप मृग के लाञ्छन वाले ! फिर जिनकी परलोक विपय क्रिया नहीं रही ऐसे जो नास्तिक लोग हैं, वेही जिनप्रवचन रूप चन्द्र के ग्रसनपरायण होने से राहु के समान हैं उन से जो पराभव करने योग्य नहीं है / अतः श्री संघ के लिये यह आमंत्रण किया गया है कि हे अक्रिय राहु मुखदुष्प्रधृष्य ! तथा जिस प्रकार चन्द्र निर्मल होता है ठीक उसी प्रकार मिथ्यात्वरूप मल से रहित जो सम्यक्त्व है, वही उस संघ रूप चन्द्र की विशुद्ध ज्योत्स्ना (चांदनी) है। इसीलिये यह आमंत्रण किया गया है कि हे निर्मल सम्यक्त्व विशुद्ध ज्योत्स्ना वाले संघ चन्द्र ! तू सदैव काल जय करने वाला हो। यद्यपि भगवान् संघ चन्द्र सदैव जय कर्ता होकर ही वर्त रहा है, तथापि यहां पर स्तुति करने वाले के मन वचन और कार्य कुशल प्रवृत्ति रूप होनेसे इस कथन से कोई आपत्ति रूप दोप नहीं है //
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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